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लमही गांव की मन में टूटती तसवीर और उस की छटपटाहट के बीच प्रेमचंद की जय !

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
लमही की जो तसवीर बत्तीस बरस पहले मन में बसा कर लौटा था, अब की वहां जा कर वह तसवीर टूट गई है। ऐसे जैसे मन में कोई शीशा टूट गया है। दरक गया है वह सब कुछ। जो लमही नाक में सांस लेती थी, मन में वास करती थी, वह कहीं किसी कोने में भी दिखी नहीं। हम होंगे कामयाब ! गीत की वह आग, वह आंच, वह सदा, वह गूंज और वह गमक कहीं गहरे डूब गई। लमही में अब कोई गांव नहीं, एक बसता हुआ सा शहर सांस लेता है। अधिसंख्य गांवों की तरह प्रेमचंद की लमही में भी न अब गाय दिखती है न गोबर। तो होरी, धनिया और गोबर जैसे पात्रों को ऐसे में वहां ढूंढना भी दूर की कौड़ी है। हां, अब वहां ‘विकास’ है। सो सरकारी योजनाओं वाले बोर्ड हैं, बिल्डर हैं। आम के घने बागों और उन की छांह की जगह बिल्डरों की धमक है, उन्हीं की आरामगाह भी, छाव नहीं।। खेतों की प्लाटिंग हो गई है, होती जा रही है। गरज यह कि लमही अब गांव की खोल उतार कर कस्बा से शहर होने की राह पर है या कहिए कि शहर की सांस ले रहा है। बेतरतीब बसता हुआ शहर। शहर बनने की आहट में इस गांव की छटपटाहट की आंच तपाती है।

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लहुराबीर में जहां प्रेमचंद का सरस्वती प्रेस और निवास था उस के पास प्रेमचंद की मूर्ति पर माल्यार्पण के बाद
श्रीकृष्ण तिवारी, सुधाकर अदीब, दयानंद पांडेय, अमिता दुबे, करुणाकर अदीब, वीरेंद्र सारंग व अन्य
वैसे भी लमही बनारस शहर से कुछ बहुत दूर नहीं था। ऐसे विवरण मिलते ही हैं कि एक समय प्रेमचंद यहां से बनारस पैदल ही ट्यूशन पढ़ाने जाया करते थे। पर अब लमही और बनारस शहर में उस की दूरी भी सुन्न हो गई है। लमही अब शहर से जुड़ कर शहर का ही एक हिस्सा हो चला है। यह गांव की शहर के बरक्स हार है। हर कहीं शहर ऐसे ही गांव को खा रहे हैं। शहर के पांव बाद में पहुंच रहे हैं गांव में, बिल्डर और उन की कालोनियां ग्राह की तरह उन्हें ग्रसने पहले पहुंच रही हैं। और जहां जिस गांव में शहर के पांव पहुंचने बाकी हैं वहां के गांव भी शहर के बरक्स थक कर हार रहे हैं। अब यह एक निर्मम सचाई है। कोई माने या न माने। शहरों की बेतरतीब भीड़ में खोते यह गांव और गांव के लोग अजब मजधार में फंस गए हैं। न गांव के रह गए हैं, न शहर के हो पा रहे हैं। आधा इधर, आधा उधर। मतलब न इधर के, न उधर के। यह कौन सा बार्डर है? कौन सी दुरभि-संधि है यह विकास की? कि गांव के सीवान भी सियार की तरह गुम हो गए हैं। लमही के नायक और सपूत प्रेमचंद जो होते तो इस परिवेश और इस पीड़ा को भला कैसे बांचते? नसीम निकहत का एक शेर बरबस याद आता है, ‘शहरों की रौनक के पीछे क्या-क्या छूटा है निकहत/ ऊंची हवेली, बाग का सब्ज़ा, छत के कबूतर छोड़ आए।’

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कोई बत्तीस साल बाद एक बार फिर से बीती 31 जुलाई, 2012 को प्रेमचंद जयंती पर लमही जाना हुआ। पहली बार 1980 में प्रेमचंद जन्म-शताब्दी के मौके पर गया था। तब विद्यार्थी था और तीन दिन रहा था लमही में। डा. लाल बहादुर वर्मा ने जनवादी लेखक संघ की ओर से तब इस आयोजन में बुलाया था। अब की उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से निदेशक डा. सुधाकर अदीब के बुलावे पर गया था। पिछली बार तीन दिन रहा था अब की तीन घंटे ही रहा लमही में। लेकिन इस तीन घंटे में ही लमही की करवट और उस की गमक की थाह लेना मुश्किल नहीं था। सब कुछ जैसे टूट रहा था। मौका चूंकि प्रेमचंद जयंती का था सो समूचा लमही प्रेमचंद से सराबोर था। लमही महोत्सव में तर-बतर। चहुं ओर प्रेमचंद की जय थी। बोलो प्रेमचंद की जय ! की जय-जयकार थी। बनारस और लखनऊ से कुछ लेखक, कवि, रंगकर्मी और अधिकारी बटुरे थे। किसी लेखक की जन्म-स्थली में ऐसा समारोहपूर्वक कार्यक्रम मन को मुदित करने वाला था। पर गांव के गुम होने टीस थी कि मन से जा भी नहीं रही थी।

प्रेमचंद के पैतृक घर के पास बाएं से अनिल मिश्र, अमिता दुबे, वीरेंद्र सारंग, रंगकर्मी उमेश भाटिया,
दयानंद पांडेय, सुधाकर अदीब, नरेंद्र नाथ मिश्र और करुणाकर अदीब ।
यह सिर्फ़ प्रेमचंद को याद करने भर का यत्न भर नहीं था। यह प्रेमचंद को जीने का भी क्षण था। बहुत ज़्यादा विद्वान नहीं थे इस समारोह में। श्रीकृष्ण तिवारी जैसे गीतकार, चौथी प्रसाद यादव जैसे आलोचक और हीरालाल यादव जैसे बिरहा गायक एक साथ प्रेमचंद के ‘लोकेल’ का भान करवा रहे थे। बनारस के कुछ रंगकर्मी भी प्रेमचंद की कहानियों के मंचन के साथ उपस्थित थे। प्रेमचंद मदरसा, लमही के बच्चे बैनर के साथ अपनी पूरी बोली-बानी और वेश-भूषा में अपनी उपस्थिति की खनक खनका रहे थे। मेरी जानकारी में प्रेमचंद के सिवाय किसी और हिंदी लेखक को शायद ही हर साल कोई महोत्सव नसीब होता हो। प्रेमचंद को नसीब होता है और अपनी माटी में, अपनी लमही में होता है – लमही महोत्सव के नाम से। यह बहुत बडी़ बात है। वर्ष २००५ से हर साल यह महोत्सव आयोजित होता है। इस में सरकारी संस्थाओं और प्रशासन सहित स्थानीय लोगों की भागीदारी होती है। लमही की शान प्रेमचंद को विषय बना कर गीत गाए जाते हैं। संगीत में निबद्ध इन गीतों की लयकारी में बोलो प्रेमचंद की जय ! में मन भींग-भींग जाता है। प्रशासनिक अमला, स्कूली बच्चे, लोग-बाग सब के सब प्रेमचंदमय ! किसी हिंदी लेखक का ऐसा मान उस की माटी में मै ने अभी तक तो नहीं देखा। कुछ लेखकों, कलाकारों और पत्रकारों को यहां स्मृति सम्मान से सम्मानित भी किया गया। मुझे भी। उपन्यास सम्राट की माटी में यह स्मृति सम्मान पा कर मैं भाउक हो गया। और लमही में यह कोई अकेला कार्यक्रम नहीं है। गांव के मंदिर परिसर में भी कार्यक्रम है। वहां भी गीत-संगीत का आलम है और भीड़ बिलकुल मेले जैसी। बूढे़, बच्चे और स्त्रियां सभी हैं। प्रेमचंद भले लिख गए हों कि साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है, मनोरंजन नहीं है। पर लमही के इस मंदिर परिसर में लोग उन के नाम पर मनोरंजन के निमित्त ही उपस्थित हैं। मंदिर परिसर बड़ा है, और मंच भी खूब ऊंचा और खूब बड़ा। उतना ही बड़ा प्रेमचंद जयंती का बैनर भी। मुख्य कार्यक्रम को मात करता बैनर, मंच और भीड़। फ़िल्मी गानों पर डांस की तैयारी। लगभग आर्केस्ट्रा वाला माहौल है। ठीक वैसे ही जैसे किसी पुलिस लाइन में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है। बैनर पर ढेर सारी संस्थाओं के नाम भी हैं। बडे़-बडे़। आप कह सकते हैं कि बिलकुल ईदगाह के मेले वाली रौनक है। जाने कितने हमीद बैठे हैं और खडे़ भी हैं इस भीड़ में। छिटपुट दुकानें भी हैं यहां। वैसी ही, गांव के मेले में जैसी होती हैं।

वाराणसी के कमिशनर चंचल तिवारी से स्मृति-सम्मान लेते हुए दयानंद पांडेय
गाना बजाना तो तब भी हुआ था, जब बत्तीस बरस पहले आया था इस लमही में। पर तब नुक्कड़ नाटक हुए थे। हम होंगे कामयाब एक दिन जैसे गीत गाए थे रंगकर्मियों ने। तब लगभग देश भर से लेखक और रंगकर्मी जुटे थे। डा शमशुल इस्लाम जो तब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढाते थे और उन की पत्नी नीलम जी, गोरखपुर के डा. लालबहादुर वर्मा और उन की टीम ने जो क्रांतिकारी और समाज को बदलने वाले नाटक और गीत तीन दिन तक पेश किए थे वह अदभुत था। बनारस से तब भी लोग आए थे। रामनारायण शुक्ल, नचिकेता, शांति सुमन, शशि प्रकाश, कात्यायनी आदि तमाम-तमाम रंगकर्मी भी। दिन में नुक्कड़ नाटक देख कर रात को गांव के आस-पास के बहुत सारे लोग इकट्ठे हो गए थे। नाच देखने की गरज से। लाठियां ले-ले कर। बहुत समझाने पर भी लोग मानने को तैयार नहीं थे। कहने लगे कि बाई जी लोग आई हैं, कम से कम फ़िल्मी ही हो जाए दो-चार ठो। बमुश्किल गांव के कुछ समझदार लोगों के सहयोग से साथी स्त्रियों को ‘सुरक्षित’ किया गया था उस रात। दूसरे दिन पुलिस की व्यवस्था करवाई गई एहतियात के तौर पर। पर कुछ अप्रिय नहीं हुआ था।

खैर, गांव का वह प्राइमरी स्कूल खोजता हूं जहां बत्तीस बरस पहले तीन दिन ठहरा था। नहीं मिलता। बाग नदारद है स्कूल के सामने का और पुरानी बिल्डिंग की जगह नई बिल्डिंग मिलती है। कुछ और सरकारी उपक्रम भी उसी परिसर में हैं। गांव का बाग, ट्यूबवेल और पुराने मकान भी नहीं मिलते। पर मन वही खोजता है। कच्चे मकान अब पक्के हो गए हैं। दिशा-दशा बदल गई है। हां, तालाब दोनों ही पुराने मिलते हैं। बस सरकारी बोर्ड लग गया है। तालाबों के सुंदरीकरण का। पर तालाब का सुंदरीकरण अधूरा है। अधूरा क्या बस लगता है कि जैसे काम शुरु होते ही बंद हो गया हो। खैर, प्रेमचंद के पैतृक घर में भी हम लोग जाते हैं। यह घर जो तब खंडहर होने को लगता था, बत्तीस बरस पहले, अब चाक चौबंद है। लगता है कि जैसे अभी जल्दी ही बना हो। दीवारों के प्लास्टर और पुताई चकाचक है। पर भीतर जाने पर प्रेमचंद की रचनाओं के नाम बने बडे़-बडे़ शिलापटों का ढेर कूडे़ की तरह रखा देख कर मन खिन्न हो गया है। रंगभूमि से लगायत तमाम रचनाओं के शिलापट। यह सरकारी योजनाओं का कुफल है। संस्कृति विभाग ने यह बडे़-बडे़ शिलापट बनवा तो लिए पर लगवाए नहीं। लगवाने के नाम पर सूरदास बन गया। रंगभमि के सूरदास की याद आ जाती है। एक वह सूरदास था, जो आज़ादी की अलख जगाता था और एक यह सरकारी सूरदास। जो योजनाएं बना कर सो गया है। क्या इन्हीं दिनों के लिए लिखा था कभी इसी बनारस में शभूनाथ सिंह ने, ‘समय की शिला पर मधुर चित्र कितने/ किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए/ किसी ने लिखी आंसुओं से कहानी/ किसी ने पढा़ किंतु दो बूंद पानी/ इसी में गए बीत दिन ज़िंदगी के/ गई धुल जवानी, गई मिट निशानी।’ तो क्या समय की शिला पर मधुर चित्र ऐसे ही बनते-मिटते हैं? निशानी ऐसे ही मिटती है? और यह सब तब है जब केंद्र और प्रदेश दोनों ही सरकारें प्रेमचंद पर मेहरबान हैं। प्रेमचंद स्मारक के सामने लगा पत्थर इस की चुगली भी खाता है। प्रेमचंद के पुश्तैनी घर और स्मारक के बीच खिंची दीवार देख कर भी मन बिदक गया।

पराड़कर भवन में आयोजित कहानी गोष्ठी में कहानी पाठ करते हुए दयानंद पांडेय।
मंच पर काशीनाथ सिंह, सुधाकर अदीब व अन्य
बहरहाल अच्छा यह है कि लोग इस सब के बावजूद प्रेमचंद की जयंती के उत्साह में हैं। प्रेमचंद की किताबें भी बिक रहीं हैं। ठीक वैसे ही जैसे गांव के मेलों में बिकती हैं। बिना स्टाल के। देख रहा हूं कि एक और आदमी भी साइकिल पर गट्ठर बांधे आया है और किताबें खोल कर रास्ते में एक जगह पक्का देख कर उस पर बिछा रहा है किताबें। प्रेमचंद की किताबों के साथ में चाणक्य नीति जैसी और किताबें भी हैं। सब की सब पेपरबैक या पाकेट साइज़ में। ज्ञानेंद्रपति जी से बात हो रही है। मोबाइल पर। बताता हूं कि लमही में हूं। तो वह कहते हैं कि हां, यह भी एक वार्षिक श्रृंगार है। समारोह में कोई पूछ रहा है कि प्रेमचंद जी के परिवार से भी कोई आया है क्या? सवाल अनुत्तरित रह जाता है। कुछ देर बाद एक सज्जन बुदबुदा रहे हैं, ‘कभी कोई नहीं आया।’ जैसे वह अपने ही को बता रहे हैं।

वार्षिक श्रृंगार यानी समारोह जारी है। कार्यक्रम पर कार्यक्रम होने हैं तीन दिन तक। भरा-पूरा शेड्यूल है लमही महोत्सव का। प्रेमचंद की जय ! का। लेकिन अब हम लोग लमही से निकल रहे हैं। लमही बनारस शहर में भले विलीन हो रहा है पर बनारस से लमही आना और जाना बहुत तकलीफ़देह है। बनारस-आज़मगढ़ रोड है। पर जगह-जगह गड्ढों, जलभराव और कीचड़ से लथ-पथ। अनायास मिल जाने वाला जाम भी है जगह-जगह। आना-जाना आसान नहीं। बनारस से सुबह जब चले थे तब लहुराबीर में प्रेमचंद जी की मूर्ति पर माल्यार्पण करते हुए चले थे। प्रेमचंद की जय यहां भी हुई थी। पर जैसी जय लमही में हुई प्रेमचंद की वैसी तो नहीं थी। वापस नागरी प्रचारिणी सभा में कार्यक्रम है प्रेमचंद जी की जयंती पर ही। यहां सुधाकर अदीब मुख्य वक्ता हैं। सब लोग अपने-अपने ढंग से प्रेमचंद को व्याख्यायित कर रहे हैं। यहां जनता नहीं है, लेखकों की बिरादरी है। शाम को पराड़कर भवन में प्रेमचंद की याद में ही कथा-गोष्ठी हुई। काशीनाथ सिंह की अध्यक्षता में। यहां श्रोताओं में जनता भी है। और लेखक बिरादरी भी। हाल भरा-पूरा है। काशीनाथ सिंह कह रहे हैं कि यहां तुलसी, कबीर, रैदास भी हमारे हैं पर उन को तो मठ वाले ले गए। लेकिन प्रेमचंद अभी भी हमारे पास हैं।किसी मठ के पास नहीं। और कि हम लोग जो काम करते रहे हैं बरसों से, अच्छा है कि अब सरकार भी करने लगी है, उसी रास्ते पर आ गई है। उन का इशारा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और इस के निदेशक सुधाकर अदीब की तरफ़ है। क्यों कि यह पहली ही बार है कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने प्रेमचंद पर बनारस में कोई कार्यक्रम आयोजित किया है। वह भी सात कहानीकारों का कहानी पाठ। काशी कहते हैं कि कथाकारों का यह प्रेमचंद को दिया गया अर्घ्य है। काशी सच ही कहते हैं।

प्रेमचंद के पैतृक घर में रखी उन की रचनाओं के नाम के शिलापट
हम लखनऊ वापस लौट आए हैं। पर कानों में अभी भी गूंज रहा है- प्रेमचंद की जय ! प्रेमचंद की जय-जयकार मन से बिसरती ही नहीं। न ही लमही की वह तसवीर जो बत्तीस बरस पहले मन में बसी थी, भूलती है। और लमही की जो तसवीर टूटी है मन में अभी-अभी, बिलकुल अभी शहर में तब्दील होते जाने की उस की छटपटाती लहूलुहान तसवीर भी मन में संत्रास की एक बडी़ सी चादर बिछा गई है। सरकारीकरण की आंच में वह बदसूरत बन गए तालाब, प्रेमचंद के घर में उन की रचनाओं के नाम के ढेरों शिलापटों का ढेर मन को सांघातिक तनाव में ले जाता है। सवाल फिर मन में सुलगता है कि क्या समय की शिला पर मधुर चित्र ऐसे ही बनाए और मिटाए जाते रहेंगे? बावजूद इस सुलगन के, इस सवाल के कानों से प्रेमचंद की जय ! की गूंज नहीं जाती। जय-जयकार मची हुई है।

साभारः दयानंद पांडेय (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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