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देश देख रहा है, एक अकेला कैसे कितनों को भारी पड़ रहा है

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
“देश देख रहा है, एक अकेला कितनों को भारी पड़ रहा है।” ऐसे बयान से किसी राजनेता के सियासी टाइमलाइन का पता लगाया जा सकता है। यह पता लगाया जा सकता है कि अमुक राजनीतिक शख्स ने अपने कितने सियासी पारियां खेल ली हैं और कितना बाकी है। अपने साख को आधार बना कर सियासी करियर चलाने वाले नेताओं के बयानी लहजों में एक निश्चित अनुक्रम देखने को मिलता है।

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मोदी जी की आरंभिक राजनीति के काल में भाषणों को उठाकर देखेंगे, तो पता चलेगा उनका एक अलग लहजा हुआ करता था। राष्ट्रहित और जनहित में खुल कर बोलना, खुलापन इतना की गांधी और सुभाष में फर्क समझ में आए तो उसे भी खुले मंच से रखना, साथ ही अपने मुख्यमंत्रित्व काल में तमाम सियासी साजिशों को लेकर जवाब देना, और इस जवाब में कहीं भी ऐसा नहीं कहना कि मैं अकेला सब ऊपर भारी पड़ा, बल्कि इसका श्रेय कहीं ना कहीं अपने राज्य की जनता को देना, यह बताता है कि मोदी जी ने अपने काम और शासन से सियासत को साधा। न कि सियासत में कभी भी उन्होंने अपनी छवि को भुनाने का प्रयास किया।

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आज मोदी जी के पास 22 साल के सियासी कामों की साख है। उनकी एक अपनी छवि निर्मित हो चुकी है। उनकी साख के साथ-साथ उनकी छवि भी अब एक प्रकार से सियासी स्टेक बन चुकी है। 2024 का चुनाव नजदीक है, दोनों सदनों में मोदी जी के भाषणों का बयांकरण बता रहा है कि चुनावी बिसात बिछ चुकी है। “मैं अकेला कितनों पर भारी हूं” वाला बयान बताता है कि इस बार मोदी जी अपने कार्य और साख के साथ-साथ अपनी छवि को भी भुना लेंगे। सवाल है कि अपनी छवि को भुनाकर कोई राजनेता कितनी बार चुनाव जीत सकता है? अधिकतम एक बार। क्या इसका अर्थ कि 2024 के बाद मोदी जी चुनाव नहीं लड़ेंगे?

अपनी छवि का इस प्रकार संपूर्ण इस्तेमाल दर्शा रहा है कि मोदी जी 2024 के चुनाव को लेकर ऐसी कोई भी गुंजाइश छोड़ना नहीं चाहते जो अंतिम रूप से लोकतंत्र में एक-एक वोट इकट्ठा कर सकता है। गतिविधि दर्शाता है कि पिछले 22 सालों में मोदी जी के नेतृत्व में जितने भी चुनाव लड़े गए, 2024 का चुनाव बिल्कुल अलग और अंतिम रूप से पूरी ऊर्जा के साथ लड़ा जाने वाला चुनाव होगा। एक तरफ अकेला मोदी होंगे और दूसरी तरफ कितने ही लोग, जिस पर ये मोदी भारी पड़ रहे होंगे। साल भर से ज्यादा तो बचे भी नहीं हैं 2024 के लिए, लेकिन “कितने ही लोग” इस वक्त भी मोदी के विपरीत पाले में मुट्ठी भर भी एकजुट दिखाई नहीं पड़ रहे।

कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक की इतनी भारी पैदल यात्रा किसी भी राजनीतिक काल में बड़ी-बड़ी राजनीतिक सत्ताओं को उखाड़ फेंकने की क्षमता रखता है। लेकिन मोदी के सामने यह यात्रा ऐसे गुजर गई जैसे बच्चे घरौंदे बनाते हो। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि राहुल गांधी कच्चे और कमजोर राजनेता है। बल्कि इसका अर्थ तो यह है कि मोदी जैसी शख्सियत राजनीति और राजनेता किसे कहते हैं, की परिभाषा बड़ी शक्ति से बड़ी कठोरता से स्थापित कर दिया है। विगत 70 वर्षों के सियासी चक्रव्यूह के सामने इस प्रकार से एक सफल लंबी राजनीति करना कोई साधारण तो नहीं! बस अब यह देखना रोमांचक होगा कि 2024 का चुनावी संग्राम भारत के राजनीतिक इतिहास में किस प्रकार एक कठोरतम प्रतिमान स्थापित करता है। और परिणाम भी कितना ऐतिहासिक लाता है।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)

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