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रिव्यू नहीं विमर्श: द केरला स्टोरी

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
द केरला स्टोरी(The Kerala Story)देखने के लिए सिनेमा हॉल में प्रवेश करते समय लोग दर्शक के रूप में प्रवेश तो करते हैं, लेकिन जब वे निकलते हैं, तब वे दर्शक नहीं रहते। बल्कि एक अलग ही बोध लेकर निकलते हैं। और बोध ऐसा कि जिसे वे मन में भाव तो कर सकते हैं, लेकिन शब्दों में जिसे हुबहू बदलने में सक्षम नहीं होते। एक ऐसा बोध जो कहीं ना कहीं धर्म समाज और राष्ट्र का बोध है। ’90 के दशक अथवा इसके बाद का, सिनेमा का मतलब फिल्म हॉल में दर्शकों को खूब पता था, किस दृश्य पर सीटियां बजनी है और बजती थी। अब सीटियां तो बिल्कुल नहीं बजती, लेकिन दंग रह जाएंगे देखकर, अब नारे लगते हैं, जय श्री राम, भारत माता की जय, हर हर महादेव। वह भी तब जब दर्शक वर्ग बिल्कुल युवा, पूरा हॉल नये युवाओं से भरा हुआ।

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फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि फिल्म वह नहीं है जो फिल्म में दिखाया गया है। फिल्म जो कहना चाहता है, अपने कहने के लिए दिखाए गए तमाम दृश्यों और डायलॉग्स का बस केवल इस्तेमाल करता है। दृश्य और डायलॉग्स ऐसे भी नहीं, कि बिल्कुल कठिन हों, कि समझने के लिए अच्छे समझदार पढ़े-लिखे दर्शक चाहिए। सबसे बड़ी बात कि इस फिल्म में कहीं भी इस्लाम और मुसलमान शब्द का विवादित इस्तेमाल नहीं किया गया। बहुत जरूरत पड़ने पर सरिया शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यह फिल्म दर्शकों को बस एक किक देता है और ऐसा बेहतरीन किक कि ढाई घंटे में सदियों के संगठन का सरिया और मजहब, दर्शकों को समझ आने लगता है।

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सबसे गलत व्याख्या आपको मिलेगा, जब आप किसी मजहबी व्यक्ति से पूछेंगे काफिर किसे कहते हैं। इस फिल्म ने काफिर के अर्थ को समझाने की कोई कोशिश मशक्कत नहीं की, लेकिन बिल्कुल सच्चे अर्थों में दर्शकों के सामने काफ़िर का अर्थ रख दिया, “दोजख की आग में काफिरों को जलना पड़ता है, जिसका ताप सामान्य आग से 70 गुना ज्यादा होता है, अल्लाह उसे कभी माफ नहीं कर सकता, लेकिन जैसे ही काफिर इस्लाम स्वीकार कर ले, उसके हजारों गुनाह अल्लाह माफ कर देता है। वो बड़ा दयालु है।”

पूरे फिल्म का सबसे केंद्रीय महत्व का सीन है, भारतीय पुलिस सेवा का वो पदाधिकारी जो पीड़ित लड़की से कहता है, जब दो व्यस्क लोग आपसी सहमति से संबंध में हों, तो कानून क्या कर सकता है? कानून को तो कार्रवाई के लिए एविडेंस चाहिए। बड़ी बात है कि इस पूरी लड़ाई में कानून कोई मसला ही नहीं है। यह लड़ाई दो सभ्यताओं की लड़ाई है। और बड़े मुद्दे की बात है कि कानून तथा हमारे देश के संविधान में, सभ्यता की कोई परिभाषा नहीं है। इसलिए इस फिल्म में यह स्पष्ट संकेत किया गया है कि इस लड़ाई को समाज अपने सामर्थ्य के बूते लड़े। लव जिहाद का कानून उत्तर प्रदेश और अन्य राज्य में भी बना, काम भी कर रहा है। लेकिन यह कानून तभी तक सक्षम है जब तक शासन इसका इस्तेमाल करे। क्योंकि लव जिहाद कानून में है कि लड़के के मुसलमान होने की आइडेंटिटी को छुपाकर विवाह किया जाता है। फिल्म में तो पहले से पता होता है कि युवक मुसलमान है। अर्थात् लव जिहाद कानून भी यहां अक्षम है।

फिल्म में फिक्शन लेने की पूरी लिबर्टी होती है। लेकिन बॉलीवुड ने इस लिबर्टी का अर्थ कुछ ऐसा लिया कि समाज की पूरी मर्यादा ही तार-तार हो गई। पठान फिल्म में दिखाया गया है कि दीपिका पादुकोण आईएसआईएस की एजेंट है और भारत के कानूनी सिपहसालारों की मदद करती है। लिबर्टी ऐसी होनी चाहिए कि फिक्शन होते हुए भी समाज के दर्पण का दायित्व निभाता रहे। द केरला स्टोरी ने वह दर्पण दिखा दिया। दर्पण में दिखाया है कि बॉलीवुड ने अपने फिल्मों में जो भी सामाजिक चीजें आज तक डाला है, सब सच्चाई के उलट था। ऐसा लग रहा इस फिल्म ने न केवल धर्म, समाज और सभ्यता के बोध का एक दर्पण खरा किया है, बल्कि बॉलीवुड को भी उसकी सच्चाई बताया है। और दशकों से चली आ रही साहित्य जिहाद की नींव को जोर से हिला दिया है।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)

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