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आपके लिए क्यों जानना जरूरी है लाउडस्पीकर लाउडस्पीकर में क्या फर्क है?

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
लाउडस्पीकर(Loudspeaker)का विमर्श एक बार फिर अवसान पर है। यह विमर्श एक बार फिर उस बिंदु को छूने में नाकाम रहा जिसके कारण यह मामला बार-बार उठता है। मामला जब भी उठता है सुप्रीम कोर्ट का परिप्रेक्ष्य हावी हो जाता है, बात आ जाती है लाउडस्पीकर से कितनी तेज आवाज निकल रही है। असल मसला होना तो यह चाहिए था कि लाउडस्पीकर से क्या आवाज निकल रही है। लाउडस्पीकर विमर्श का यही सबसे उचित विमर्श है।

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लाउडस्पीकर लाउडस्पीकर में फर्क है। फर्क ठीक वैसे ही जैसे धर्म और मजहब में है। साहित्य से लेकर सिनेमा और राजनीति तक धर्म शब्द का उपयोग इतनी दफा गलत अर्थों में हुआ है कि धर्म और मजहब के बीच शाब्दिक फर्क ही मिट गया। मिटा केवल शब्दों का अर्थ ही नहीं बल्कि लाउडस्पीकर विमर्श में देखें तो धर्म और मजहब के अंतर भी धरातल पर मिट चुके हैं। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने लाउडस्पीकर मामले को ध्वनि प्रदूषण के परिप्रेक्ष्य में लिया तो सीएम योगी आदित्यनाथ ने अदालत का सम्मान करते हुए मजहब के साथ-साथ धर्म के भी लाउडस्पीकर उतरवा दिए। धर्म और मजहब में समानता का यह एक प्रमाणिक पहलू देख सकते हैं।

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एक लाउडस्पीकर है जिससे मजहब की शान में कॉल दिया जाता है। दूसरा लाउडस्पीकर है जिससे जगत कल्याण का सत्संग निकलता है। “लाइलाहाइलल्लाह” का अर्थ है अल्लाह के अलावा दूसरा कोई भगवान नहीं। ऐसे लोगों के लिए जो कहते हैं बस केवल शब्द और पूजा पद्धति का फर्क है लेकिन “गॉड इज वन”, उनके लिए ही आगे बड़ा स्पष्ट कहा जाता है “मोहम्मदुर्रसूलल्लाह”। मतलब अल्लाह वही जिनके पैगंबर मोहम्मद साहब हैं।

बड़े स्पष्ट तौर पर इस फर्क को पिछले हजार सालों से दिन में 5 बार कहा जा रहा है। लेकिन फिर भी हम में से कुछ लोग इस सत्य को लगातार अनदेखा करते आ रहे हैं। इस सत्य को केवल सुन और समझ भर लेने से जनचेतना में इतनी समझदारी है अवश्य आ जाएगी कि कौन सी आवाज का हमें कद्र करना चाहिए। विश्व का कल्याण हो इस आवाज से आपत्ति क्यों?

धर्म शाश्वत है। “विश्व का कल्याण हो” इसकी आवाज है। युगों से है। सोच कर देखा जाए तो इस शाश्वत आवाज को मजहब के नाम पर खड़े होकर कुछ सदियों के एक संगठन ने ना केवल चुप कराया, बल्कि स्वयं को धर्म की बराबरी में खड़ा ही कर लिया। अब बड़े कायदे से कही जाती है कि लाउडस्पीकर उतरेंगे तो दोनों के ही।

आपत्ति तो बराबरी का दर्जा मिल जाने के बाद भी है। जहां एक और शोभायात्रा पर पत्थरबाजी से लेकर कानूनी पाबंदी तक सब कुछ हो जाता है वहीं दूसरी ओर जयपुर की सड़कों पर बड़े प्रयोजन से ‘अलविदा’ की मजहबी प्रैक्टिस की जाती है। कितना आश्चर्य है कि मजहबी उन्माद को पाबंद करने के लिए धार्मिक उपकरणों का इस्तेमाल करना पड़ता है। जैसे हिजाब पर प्रतिबंध कराने के लिए कर्नाटक में विद्यार्थियों ने भगवा ओढ़ लिया था।

भले इस बराबरी जवाबी पहल से मजहब को धर्म से बराबरी की प्रतिष्ठा हासिल होती है, फिर भी हम नाराज नहीं। कम से कम धार्मिक उपकरणों के बलिदान से मजहब के अतिवाद को तोड़ा तो जा रहा है। यह क्रम चलते रहना चाहिए।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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