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राजनीति में लालू यादव के कारिंदे मनोज झा का कुआं अब उन का काल बन कर सामने है

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
राजद के राज्य सभा सांसद मनोज झा ने ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता का पाठ क्या राज्य सभा में कर दिया कि सारा दांव उल्टा पड़ गया। मनोज झा ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता के मार्फ़त नरेंद्र मोदी को ठाकुर बनाने की फ़िराक़ में थे। पर बिहार के सारे ठाकुर अब मनोज झा को पटक कर मारने की बात कर रहे हैं। भाजपा , राजद , जद यू आदि सभी पार्टियों के ठाकुर मनोज झा को तरह-तरह से रगड़ रहे हैं। आनंद मोहन जैसे माफ़िया कह रहे हैं मारना ही है तो ठाकुर को क्यों , अपने ब्राह्मण को मारो। मनोज झा ख़ामोश हैं। हो सकता है इन दिनों अगर वह बिहार जाएं तो सचमुच पिट जाएं। ऐसे समय में उन्हें बिहार जाने से तो बचना ही चाहिए। दिल्ली में भी बच कर रहना चाहिए। क्यों कि उत्तर प्रदेश और बिहार में यादव और ठाकुर अपनी जाति को ले कर , जातीय अस्मिता को ले कर बहुत सतर्क और आक्रामक हैं। तहज़ीब और क़ानून की सारी सरहद लांघ कर मार-पीट पर उतर आते हैं। गोली-बंदूक़ पर आ जाते हैं। रणवीर सेना का रण लोग अभी भूले नहीं हैं। मनोज झा क्या भूल गए हैं ? बिहार में भाकपा माले इसी में ध्वस्त हो गई। यह वही बिहार है जहां पप्पू यादव ने एक वामपंथी विधायक की दिन दहाड़े हत्या कर दी। और वामपंथी न सिर्फ़ ख़ामोश रहे , उसी पप्पू यादव के साथ खड़े रहते हैं। शहाबुद्दीन का यह वही बिहार है , जो जेल से शासन चलाता था। लालू यादव जैसों को जेल से फ़ोन पर निर्देश था कि यह एस पी नहीं चलेगा , इसे तुरंत हटाइए। बिना देरी किए लालू हटा देते थे। शहाबुद्दीन जेल से निकल कर किसी भी की हत्या कर जेल लौट आता था। किसी का अपहरण करवा कर जेल बुलवा लेता था। जंगलराज वैसे ही तो नहीं कहा जाता था। वैसे ही तो जंगलराज – 2 अब कहा जा रहा है।

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अच्छा इतने सारे ठाकुरों ने मनोज झा को धमकी दी है। मारने , पटकने की बात की है। कोई एफ़ आई आर हुई क्या ? मनोज झा की पार्टी सरकार में है। न सही किसी और पार्टी , भाजपा के धमकी देने वाले नेता के ख़िलाफ़ तो एफ़ आई आर हो ही सकती है।

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क्यों नहीं हुई ? यही सुशासन है ? कि सत्ता पक्ष के एक सांसद को खुले आम धमकी पर धमकी ऐसे आ रही है गोया आम के पेड़ से आम टपक रहा हो। महुआ के पेड़ से महुआ टपक रहा हो।

मेरी एक लंबी कहानी है घोड़े वाले बाऊ साहब। कोई दो दशक पूर्व एक अख़बार में धारावाहिक छपी थी। पहली किश्त छपते ही , कुछ ठाकुरों ने मुझे पर धमकियों की बरसात कर दी। और तो और उस अख़बार में कार्यरत ठाकुरों ने भी मुझे जो-जो नहीं कहना चाहिए था , कहा। लखनऊ में उस अख़बार में तब के रेजिडेंट एडीटर तक ने मुझ से चिल्ला कर कहा , लोग बम मार देंगे ! मैं ने मुस्कुरा कर पूछा कौन ? तो वह रेजीडेंट एडीटर बोला , ठाकुर सब ! मैं ने उस जाहिल रेजिडेंट एडीटर से कहा , तुम ठाकुर हो भी ? वह झुंझला कर रह गया। मैं ने कहा , ठाकुर होते तो किसी पढ़े-लिखे आदमी से इस टोन में बात नहीं करते। ठाकुर तो ब्राह्मणों की इज़्ज़त करते हैं। और तुम इस तरह बात कर रहे हो ? अलग बात है कि यह रेजिडेंट एडीटर एक समय मेरे पांव छूते नहीं अघाता था। तब वह मुझ से जूनियर था। अब लोगों के पांव छू-छू कर , कमीनगी और धूर्तई कर रेजीडेंट एडीटर बन गया था। बाद में ग्रुप एडीटर तक बना और अंतत: नौकरी से अपमानित कर बर्खास्त कर दिया गया। पर तब तो दिल्ली में तत्कालीन संपादक पर दबाव डाला कि कहानी की किश्त अब न छापी जाए। संपादक ने कहा किश्त तो नहीं रुक सकती। क्यों कि घोषणा हो चुकी है , अगली किश्त की। पर दबाव और धमकी इतनी पड़ी कि उन्हें कहानी के कुछ हिस्से संपादित कर छापना पड़ा। ऐसी अनेक घटनाएं हैं। किसी यादव के ख़िलाफ़ भी कुछ बोल कर या लिख कर देख लीजिए। जीना हराम हो जाता है। मुलायम सिंह के इनकाउंटर से बचने के लिए साइकिल से दिल्ली भाग कर चौधरी चरण सिंह की शरण में जा कर जान बचाने की घटना का एक बार ज़िक्र कर दिया था तो पूरी यादव ब्रिगेड मुझ पर राशन-पानी ले कर टूट पड़ी थी। क्या-क्या नहीं कहा , क्या-क्या नहीं किया। ऐसे अनेक वाक़ये हैं , मेरे साथ। बहुतों के साथ।

मनोज झा भले अपने को जो मानें , अंतत : ब्राह्मण हैं। मनोज झा के बहाने जनेश्वर मिश्र की याद आ गई है। जनेश्वर मिश्र खांटी समाजवादी थे। लोहियावादी थे। यहां तक कि लोग उन्हें छोटा लोहिया भी कहते थे। पर यह सार्वजनिक सच था। व्यक्तिगत सच यह था कि जब वह ओ बी सी या दलित आदि के साथ बैठते थे , भोजन करते थे वह लोग उन्हें ब्राह्मण ही मानते थे और एक दूरी बना लेते थे। जब ब्राह्मणों के साथ बैठते थे , भोजन करते थे तो ब्राह्मण भी उन से दूरी बना कर रखते थे। कहते थे , तुम तो छोटी जातियों के साथ खाते-पीते हो। अब ब्राह्मण कहां रह गए हो। जाति के स्तर पर न वह इधर के रह गए थे , न उधर के। दोनों तरफ से बहिष्कृत। समाजवादी के नाम पर भी वह आख़िरी समय में मुलायम के कारिंदे बन कर रह गए थे। कभी छोटे लोहिया कहे जाने वाले जनेश्वर मिश्र , हल्ला बोल , हल्ला बोल , बोल मुलायम हल्ला बोल ! का नारा लगाने के लिए अभिशप्त हो गए थे। मुलायम सिंह यादव का ईगो मसाज ही उन का काम रह गया था। राज्य सभा में वह किसी तरह , इसी नाते बने रहे। यह ज़रूर है कि दिवंगत हुए तो मुलायम ने जनेश्वर मिश्र के नाम एशिया का सब से बड़ा पार्क बनवा दिया।

लेकिन मनोज झा ?

मनोज झा भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते भले हैं पर राजनीति में वह लालू यादव के महज़ कारिंदे हैं। मनोज झा के नाम पर तो कोई लालू अब कोई पार्क बनाने की हैसियत में नहीं है। न मनोज झा की ऐसी कोई हैसियत है। राज्य सभा में अगला कार्यकाल भी उन को मिलता नहीं दिखता। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ठाकुर का कुआं उन्हें ठाकुरों के निशाने पर ले चुकी है। वामपंथियों का उन का चोला उतर चुका है। समूची सेक्यूलर ब्रिगेड सिरे से ख़ामोश है। मनोज झा के पक्ष में कोई चूं भी करने को तैयार नहीं है। मनोज झा ने नरेंद्र मोदी को ठाकुर यानी खलनायक बताने के लिए राज्य सभा में ठाकुर का कुआं कविता पढ़ी और ख़ुद ठाकुरों की घृणा का ग्रास बन गए। फ़िलहाल वह कविता ठाकुर का कुआं यहां पढ़िए और जहां-जहां ठाकुर लिखा है , वहां-वहां नरेंद्र मोदी लिख कर पढ़ लीजिए। क्यों कि मनोज झा ने जब राज्य सभा में यह कविता पढ़ी तो उन का सारा मंतव्य , सारा मेटाफ़र , सारा रुपक , सारा बिंब , हाव-भाव , दांव और संदेश यही था। अब यह तीर ख़ुद के गले की फांस बन गया है सो बात अलग है। मनोज झा को सचमुच बहुत सतर्क रहना चाहिए। याद रखना चाहिए कि फूलन देवी की जब हत्या हुई थी , वह भी सांसद थी। सांसद के नाते मिले सरकारी आवास और सरकारी सुरक्षा में हत्या हुई थी। ठाकुरों के प्रतिशोध में उस डकैत की हत्या हुई थी। वह डकैत जिस ने पुलिस के ही नहीं तमाम दुर्दांत दस्युओं के दांत खट्टे कर दिए थे। मौत के घाट उतार चुकी थी। बेहमई जैसा नृशंस कांड कर एक साथ 22 ठाकुरों को मौत के घाट उतार चुकी थी। तो मनोज झा किस खेत की मूली हैं। फ़िलहाल ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता :

ठाकुर का कुआं / ओमप्रकाश वाल्मीकि

चूल्हा मिट्टी का

मिट्टी तालाब की

तालाब ठाकुर का।

भूख रोटी की

रोटी बाजरे की

बाजरा खेत का

खेत ठाकुर का।

बैल ठाकुर का

हल ठाकुर का

हल की मूठ पर हथेली अपनी

फ़सल ठाकुर की।

कुआँ ठाकुर का

पानी ठाकुर का

खेत-खलिहान ठाकुर के

गली-मुहल्ले ठाकुर के

फिर अपना क्या?

गाँव?

शहर?

देश?

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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