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कुंआ ठाकुर का…

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
मेरा एक दोस्त है! स्कूल के समय का दोस्त… नाम छोड़िये! तब वह शायद मेरे विद्यालय में आने वाले बच्चों में सबसे धनी परिवार का लड़का था। यहाँ धन का अर्थ रुपये से नहीं, जमीन से है। हम सब कहा करते थे, इसके घर बोरा में भर भर कर रुपया रखा जाता है।
पर एक विचित्र बात थी उसमें। हमेशा पुराने कपड़े पहन कर आता था। कभी पैंट की जेब फटी होती तो कभी शर्ट की सिलाई टूटी होती… हम सब आश्चर्यचकित रहते थे कि इतने बड़े घर का लड़का ऐसे कपड़े क्यों पहनता है… अनेक बार हम दोस्तों ने उसके कपड़े फाड़ दिए। हम सोचते थे कि इस पुरानी शर्ट को फाड़ दिया तो कल नया खरीदवा कर आएगा, पर वह हमारी उम्मीदों को छलनी करते हुए अगले दिन फिर कोई पुरानी सर्ट पहन कर आता और हमें देख कर खूब हँसता…

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अब मुद्दे पर आते हैं। अगल बगल के चार गाँव के गरीब लोग उसकी सम्पत्ति के बल पर जीते थे। घर बनाने के लिए लोग उसके खरहुल से खर काटते, बांस उसके बंसवारी से काटते, भोजन बनाने के लिए जलावन उसके बगीचे से काट कर ले जाते… कभी मांग कर, कभी बिन मांगे। जैसे अधिकार हो उनका… आम के महीने में सैकड़ों परिवारों को आम उसी के बगीचे से नसीब होता था। अनेक बार तो लोग उसके खेतों से पकी फसल चोरी कर के ले जाते थे। दोस्त के पिता को सब पता होता था, पर उन्होंने कभी किसी को नहीं रोका, नहीं टोका…

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दोस्तवा हमेशा कहता, “पापा हमारे सारा धन लुटा रहे हैं… बर्बाद कर दिए सब…” पर इतनी हिम्मत किसकी जो उनकी बांह पकड़े? सब यूँ ही चलता रहा। दोस्त अपने पिता को कभी समझ नहीं सका। जाने क्यों, मुझे वे स्पष्ट समझ आते थे…

मैं उनके बेटे का दोस्त था, पर वे मुझे प्रणाम करते थे। मुझे यह अजीब लगता था, इससे बचने के लिए एक दो बार मैंने उन्हें देखते ही जल्दी से प्रणाम कर लिया तो एक बार बरस पड़े, “ब्राह्मण हो न, धर्म है तुम्हारा कि हमें आशीर्वाद दो… इससे बचने का तरीका मत ढूंढो…”

एक बात हमको बहुत बाद में समझ आयी कि उनके पास जमीनें बहुत थीं, पर पैसे नहीं थे। पैसे तो नौकरियों से आते हैं न… नौकरी उन्होंने की नहीं थी, और खेती से इतनी आमदनी नहीं थी कि पैसे बरसें… खेती को हमारे पूर्वांचल में पैसे कमाने का जरिया तो नहीं ही समझा जाता था तब! और सामाजिक प्रतिष्ठा तो यूँ भी पैसे से नहीं, व्यवहार से तय होती है।

तो दोस्तवा हमारा मैट्रिक के बाद सीधे आईटीआई किया और भग गया विदेश! खूब पैसा कमाया, खूब… इतना कि ससुरा सचमुच बोरा में रखने लगा होगा पैसा…
दोस्त अब भी पिता पर चिढ़ता था कि पापा सब सम्पत्ति बांट देते हैं। लूट मची हुई है, पर किसी को रोकते नहीं… एक दो बार हमारे सामने भी उनसे हँसते हुए कहा था उसने… वे हँस कर उत्तर देते, “हम जबतक जिएंगे, तबतक ऐसा ही चलेगा… हमारे जाने के बाद तुमलोग भले रोक देना लोगों को, पर हमारे जीते जी नहीं…” फिर उसके इधर-उधर हटने के बाद मुझसे कहते- “यहाँ के बड़ेआदमी हम हैं तो गरीब लोग किसकी सम्पत्ति पर जिएंगे सर्वेश बाबू? पीढ़ी दर पीढ़ी से सब यहीं से जी रहा है, अब हम रोक दें? बाकी इसको देख कर लगता नहीं कि यह हरामखोर किसी को तिनका भी छूने देगा…” फिर हम दोनों खूब हंसते… दोस्तवा के पीठ पीछे…

खैर! दोस्त के पिताजी स्वर्ग सिधार गए दो तीन साल पहले… दोस्तवा खूब धन कमा रहा है। पर आश्चर्यजनक बदलाव हुआ है उसमें। वे सारे गरीब लोग अब भी उसके बगीचे से, खरहुल से, बंसवारी से, खेतों से पहले की तरह ही उठा ले जाते हैं समान! दोस्त अपने पिता की तरह ही सबकुछ जानता है, देखता है, पर किसी को नहीं टोकता… शायद उसे समझ आ गया है कि वह ठाकुर है। और हाँ… कपड़वा ससुरा अब भी दलिद्दर जैसा पहनता है… जाने कहाँ से खरीदता है डेढ़ सौ का टीशर्ट…

साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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