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सफेद छाप डॉक्टर बनाम झोला छाप डॉक्टर-भाग 2

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Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
आयुर्वेद के साथ मार्डन मेडिसिन के कुछ एलोपैथिक चिकित्सको को क्या ऐतराज है, ये आज तक समझ मे नही आया है । इसलिए इनके चिकित्सक संघटनो ने भी करीब करीब हर राज्यो के न्यायालय मे केस दर्ज किया हुआ है । वही अपने संघटनो के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर भी सरकार पर दबाव बनाया हुआ है । पर हर सरकार का नैतिक दायित्व है कि हर नागचिकित्सा मिलनी चाहिए । विशेषकर ग्रामीण और दूरस्थ अंचलो में चिकित्सा सुविधा कैसे उपलब्ध कराई जाये, यह भी यक्ष प्रश्न रहा है । इन समुदाय का मानना है कि एलोपैथिक दवाइयो और सभी प्रकार के जांच मे शत प्रतिशत इनका ही अधिकार है, जिसका उपयोग कोई न कर सके । पर कभी इनके संगठन ने देश के बारे मे, दूरस्थ अंचलो के लोगो के बारे मे कभी गंभीरता से सोचा है ?
अगर ये मानवीय सोच रहती तो शायद व्यवसायिकता के सोच पर भारी पड़ती । पर दुर्भाग्य से ऐसा नही हुआ ।

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चलो झोला छाप चिकित्सक बनने की ही बात कर ले। पहले अंक के आधार पर ही मेडिकल मे चयन होता था । पर अब चयन का पैमाना ही बदल गया है। अगर अंको के आधार पर चयन नही हुआ तो इन लक्ष्मीपुत्रो के लिए दूसरे दरवाजे खुले रहते है । जिनका नही होता, कुछ लोग आयुर्वेद मे आकर ही चिकित्सक बन जाते है । पर जिनके पास बैग रहती है वो प्राइवेट कालेज के मैनेजमेंट कोटा से बड़ी फीस देकर अपनी सीट सुनिश्चित कर लेते है । आज अधिकांश चिकित्सक बैग छाप से ही बनकर आते है । वही कुछ संपन्न लोग यूरोपीय देशो मे भी जाकर डिग्री लेकर आते है,कुछ आफ्रीकन देशो से भी डिग्री लेकर आते है । बस एक अदद डिग्री की ही आवश्यकता है । पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए भी यही रास्ता अपनाया जाता है । यहां थोड़ा अंतर यह रहता है कि बैग का वजन जरूरत से ज्यादा भारी हो जाता है, जो सबके लिए संभव भी नही है । इतना खर्च करने के बाद मानवीयता की उम्मीद जनता व सरकार कैसे कर सकती है ? फिर बैग छाप, झोला छाप के बारे मे बोले, शोभा नही देता। अभी यह आलेख क्रमशः जारी रहेगा ।
लेखक:डा.चंद्रकांत वाघ(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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