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क्या रामपुर मुस्लिम मतदाताओं की प्राथमिकता व मानसिकता की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा लेने जा रहा है ?

-सतीश चन्द्र मिश्रा की कलम से-

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Positive India:Satish Chandra Mishra:
मुस्लिम मतदाताओं की प्राथमिकता, मानसिकता की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा लेने जा रहा है रामपुर।
ऐतिहासिक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है रामपुर।
पूरी लुटियन मीडिया समेत किसी न्यूजचैनल ने कभी चर्चा नहीं की, आज भी नहीं कर रहा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि केवल रामपुर नहीं बल्कि पूरे उत्तरप्रदेश के मुसलमानों का ठेकेदार खुद को समझने वाले आज़म खान ने स्वयं अपने राजनीतिक गढ़ रामपुर के मुसलमानों को कैसी जिंदगी जीने का उपहार दिया है.?
आप यह जानकर चौंक जाएंगे कि लगभग ढाई-तीन दशकों तक जिस रामपुर पर आज़म खान का एकछत्र राजनीतिक वर्चस्व रहा,उस 27 लाख जनसंख्या वाले रामपुर में मात्र एक सरकारी अस्पताल है। जिला अस्पताल की पहचान वाला यह अस्पताल भी 1980 में आज़म खान के विधायक बनने से दशकों पहले का है। इसके अतिरिक्त दूसरा तथ्य और भी अधिक चौंकाने वाला है।
उप्र में 1990 से अबतक 4 बार बनी समाजवादी पार्टी की हर सरकार में आज़म खान कद्दावर कैबिनेट मंत्री रहा है। 2012 से 2017 तक उप्र में रही पूर्ण बहुमत की समाजवादी सरकार में कई विभागों का कैबिनेट मंत्री रहे आज़म खान की राजनीतिक हैसियत को मुख्यमंत्री के समकक्ष ही समझा जाता था। लेकिन 2017 में समाजवादी पार्टी की सरकार से विदाई के समय रामपुर के इस इकलौते सरकारी अस्पताल की स्थिति यह थी कि 27 डॉक्टरों के पद वाले रामपुर जिला अस्पताल में केवल 13 (48%) डॉक्टर तैनात थे। शेष 14 (52%) पद खाली थे। जिला अस्पताल में एक भी कार्डियोलोजिस्ट, न्यूरोलॉजिस्ट तथा चर्मरोग और नाक कान गले (ईएनटी) का एक भी डॉक्टर तैनात नहीं था। अस्पताल में केवल 2 नर्सें काम कर रहीं थीं। 5 साल तक उत्तरप्रदेश सरकार के 7 विभागों का कैबिनेट मंत्री आज़म खान के रहने के तत्काल बाद रामपुर में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की इतनी दीनहीन दरिद्र जर्जर स्थिति यह बताती है कि 50% मुस्लिम जनसंख्या वाले रामपुर की क्या और कैसी जनसेवा आज़म खान ने की है। योगी सरकार बनने के बाद जिला अस्पताल में डॉक्टरों की संख्या 13 से बढ़कर 21 तथा नर्सों की संख्या 2 से बढ़कर 15 हो चुकी है। डायलिसिस सरीखी सुविधा भी उपलब्ध हो चुकी है।

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अब एक और बहुत महत्वपूर्ण तथ्य से परिचित होइए।
1980 में आज़म खान जब पहली बार विधायक बना तो उस समय रामपुर में 2000 कर्मचारियों वाली सुगरमिल, रामपुर डिस्टिलरी, खेतान ग्रुप की मोदी जिरोक्स, खेतान फर्टिलाइजर फैक्ट्री और पेपर मिल थी। इसके अतिरिक्त 80 के दशक तक पूरे देश में चर्चित रही रज़ा टेक्सटाइल समेत रामपुर के नवाब की 11 अन्य मिलें भी रामपुर में थी। यह इकाइयां लगभग 5 लाख लोगों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार का महत्वपूर्ण स्त्रोत थीं। आज इनमें से केवल रामपुर डिस्टिलरी का अस्तित्व शेष बचा है। शेष सभी औद्योगिक इकाइयां दम तोड़ चुकी हैं। इसका एकमात्र जिम्मेदार भी आज़म खान ही रहा।
रामपुर के नवाब परिवार को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाले आज़म खान ने 1980 में विधायक बनते ही नवाब परिवार को बरबाद करने की अपनी जिद्द और सनक में रामपुर की सबसे बड़ी औद्योगिक इकाई रज़ा टेक्सटाइल में अनिश्चितकालीन हड़ताल कर उसे बंद करवा दिया था। अगले कुछ वर्षों में नवाब परिवार की 11 अन्य फैक्ट्रियों को भी आज़म खान ने हड़ताल के इसी हथकंडे से हमेशा के लिए बंद करवा दिया था। रामपुर में बढ़ते गए आज़म के इस तुगलकी राजनीतिक वर्चस्व के साथ अन्य फैक्ट्रियों के मालिकों ने भी अपना बोरिया बिस्तर समेट लिया था। 1980 के दशक तक कल कारखानों की उपजाऊ भूमि रहा रामपुर आज देश में कल कारखानों के सबसे भयावह कब्रिस्तानों में से एक बन चुका है। आज़म खान के लगभग 3 दशक के वर्चस्व काल के दौरान एक भी औद्योगिक इकाई रामपुर में स्थापित नहीं हुई है।
उपरोक्त दो महत्वपूर्ण दस्तावेजी तथ्यों के बावजूद जब न्यूजचैनलों तथा यूट्यूबरों द्वारा रामपुर की सड़कों चौराहों मोहल्लों में लगायी जा रही छोटी छोटी पंचायतों में मुस्लिम मतदाता जब बेरोजगारी और विकास का रोना रोने की आड़ लेकर आज़म खान की वकालत खुलकर करते दिखते हैं तो उन मुस्लिम मतदाताओं की प्राथमिकता और उनकी मानसिकता गम्भीर सवालों के कठघरे में खड़ी हो जाती है।
रामपुर के नवाब परिवार का नौजवान वारिस भी इस बार रामपुर की ही स्वार टांडा सीट से आज़म खान के बेटे को चुनावी चुनौती दे रहा है। न्यूजचैनलों से तो उसका चेहरा लगभग गायब है और केवल अब्दुल्ला आज़म का चेहरा दिख रहा है। लेकिन कुछ यूट्यूब चैनलों पर नवाब परिवार के नौजवान वारिस को जितना देख सुन चुका हूं उसके आधार पर यह कह सकता हूं कि उस नौजवान की जीत रामपुर के राजनीतिक इतिहास का निर्णायक मोड़ सिद्ध होगी। पिछले तीन दशकों के दौरान तबाह बरबाद हुए औद्योगिक आर्थिक सामाजिक शैक्षणिक ढांचे के जो भी अवशेष आज शेष बचे हैं उन पर केवल उसी नवाब परिवार के चिन्ह दिखायी देते हैं।

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साभार:सतीश चंद्र मिश्रा-(ये लेखक के अपने विचार है)

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