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मजबूर सरकारें कुछ भी कर सकती हैं

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India:Rajkamal Goswami:
मान्यवर कांशीराम कहा करते थे कि हमें मजबूत सरकार नहीं अपितु मजबूर सरकार चाहिये जो उनके समर्थन पर टिकी हो । ऐसी मजबूर सरकारें बहुत ख़तरनाक होती हैं ।

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जब १९६९ में काँग्रेस इंडीकेट और सिंडीकेट में दोफाड़ हो गई तो केंद्र में इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गई । ऐसे समय में कम्युनिस्टों ने इंदिरा सरकार को मार्च १९७१ में होने वाले अगले चुनावों तक सम्हाला और सरकार की मजबूरी का जम कर फायदा उठाया । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना उन्हीं दिनों हुई थी तो उसकी फैकल्टी में कम्युनिस्ट घुस गये । भारतीय जनसंघ तो तब आश्चर्यवत देखता रह जाता था कि जेएनयू से जो भी पढ़ कर निकलता वह पक्का मार्क्सवादी होकर निकलता था ।
एनसीईआरटी की किताबें भी वामपंथी हो गईं । शिक्षा चूँकि तब भारतीय संविधान की राज्य सूची में थी इसलिये राज्यों में राष्ट्रवादी शिक्षा फिर भी दी जाती रही । आपातकाल में ४२वें संशोधन द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची में डाल दिया गया तो कम्युनिस्ट राज्यों की शिक्षा में भी घुस गये । सन सत्तर से पहले जो इतिहास पढ़ाया जाता था , कम्युनिस्टों के प्रवेश के बाद सब घाल मेल हो गया ।

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मजबूर सरकारें जिसे भी भर्ती कर लेती है वो अपनी सेवानिवृत्ति तक लगभग तीस वर्ष तक तो अपने एजेंडे पर काम करता ही रहता है । अपने समर्थक दलों के हित के आगे सरकारों को झुकना ही पड़ता है ।

कनाडा में जस्टिन ट्रूडो भी आजकल एक मजबूर सरकार चला रहे हैं । उनकी लिबरल पार्टी की सरकार को बहुमत के लिये १७० सीटें चाहिये और १५५ हैं । बाकी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के २४ सांसदों का समर्थन उन्हें प्राप्त है जिनके सहारे सरकार चल रही है ।

सरदार जगमीत सिंह न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष हैं । उन्हें आप कनाडा का कांशीराम समझिये जिनके इशारों पर जस्टिन ट्रूडो नाच रहे हैं । भारत के किसानों का दर्द आजकल उन्हें सोने नहीं देता । उनके भारत सम्बंधी वक्तव्यों के लिये उन्हें माफ़ कर देना चाहिये ।

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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