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बाबा तुलसीदास और प्रायश्चित में गरुड़ संवाद : अधम जाति मैं विद्या पाये /भयउँ जथा अहि दूध पिलाए

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India:Rajkamal Goswami:
अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि No man is hero to his valet . यानी कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी महान हो अपने निकटतम सेवकों की दृष्टि में महान नहीं होता क्योंकि सेवक अपने स्वामी की बहुत सी कमज़ोरियों को जान जाता है ।

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मेघनाद ने युद्ध में राम लक्ष्मण को नागपाश से बाँध दिया । दोनों की विवशता देख कर नारद जी ने गरूड़ जी का आवाहन किया जिन्होंने आकर नागों को मार कर राम लक्ष्मण को नागपाश से मुक्त कराया ।

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होना तो यह चाहिए था कि गरुड़ जी में भगवान के प्रति कृतज्ञता उत्पन्न होती कि ऐसे समय पर उन्हें भगवान ने सेवा का अवसर दिया पर हुआ उल्टा । उनके मन में अहंकार उत्पन्न हो गया और राम की नागपाश में विवशता देख कर उनके परब्रह्म होने पर भी संदेह पैदा हो गया ।

गरुड़ जैसे परमसेवक में ऐसा भाव देख कर नारद जी ने उन्हें संदेह दूर करने के लिए ब्रह्मा जी शंकर जी सबके पास भेजा लेकिन अंततः वे कागभुशुंडि जी की शरण में गए । कागभुशुंडि ने गरुड़ को जो कथा सुनाई वही रामचरितमानस में वर्णित की गई है । बीच बीच में गरुड़ को संबोधित चौपाइयाँ प्रसंगवश आ जातीं हैं यथा,

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ॥

गरुड़ का संदेह दूर होने के बाद कागभुशुंडि जी अपनी कथा सुनाते हैं ।

किसी कल्प में कागभुशुंडि ने अयोध्या पुरी में एक शूद्र के रूप में जन्म लिया था । अयोध्या में दुर्भिक्ष पड़ने के कारण वे उज्जैन चले गए जहाँ वे एक ब्राह्मण के साथ रहने लगे । ब्राह्मण परम शिवभक्त था किंतु भगवान विष्णु के साथ भी उसकी अभेद बुद्धि थी । उसने इन्हें भी शिव उपासना का मंत्र दिया । लेकिन शंकर जी की उपासना के बाद ये विष्णु से घोर द्रोह रखने लगे । सच्चा भक्त कभी किसी से द्रोह नहीं रखता । गुरु ने इनको बहुत समझाया पर दिनोंदिन इनकी शिवभक्ति और हरिद्रोह बढ़ता ही गया । बार बार समझाने के कारण गुरु के प्रति भी शिष्य के मन में असम्मान उत्पन्न हो गया ।

कहानी के इस मोड़ तक यह स्पष्ट हो जाता है कि उस युग में शूद्र न केवल ब्राह्मण के साथ रह सकता था अपितु उसे विद्या प्राप्त करने और मंदिर में पूजा करने के समस्त अधिकार प्राप्त थे । यहाँ पर आकर शूद्र के साथ उसका जीवन परिवर्तन करने वाली घटना घटती है । तुलसी दास कागभुशुंडि की मनोदशा वर्णन करते हुए वर्णन करते हैं ,

एक बार हरमंदिर जपत रहेउँ सिव नाम ।
गुरु आयउ, अभिमान बस उठि नहिं कीन्ह प्रणाम ॥
सो दयालु कछु कहेउ नहिं उर न रोस लवलेस ।
अति अघ गुरु अपमानता सहि नहिं सके महेस ॥
मंदिर माँझ भई नभबानी । रे हतभाग्य अज्ञ अभिमानी ।
जद्यपि तव गुरु के नहिं क्रोधा । अति दयालु चित सम्यक् बोधा
जो नहिं दंड करूँ खल तोरा । भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा ।

और शंकर जी ने अगली एक हज़ार योनियों तक सर्प का जन्म लेने का शाप दे दिया ।

ख़ैर आगे क्या हुआ यह लम्बी कथा है । असली बात तो यह है एक ब्राह्मण एक शूद्र को अपने साथ रखता है उसे विद्या प्रदान करता है । एक सद्गुरू का कर्तव्य निर्वहन करते हुए शिष्य को भगवान शंकर और राम के बीच अद्वैत का उपदेश देता है । शिव भक्ति के अहंकार में चूर वह शिष्य अपने को अधिक विद्वान समझते हुए अपने गुरु का अपमान करता है और बदले में शंकर जी का शाप भी भुगतता है । गुरु अपने शिष्य को शापमुक्त कराने के लिए शंकर जी के समक्ष प्रसिद्ध रुद्राष्टक के पाठ करता है ।

शापमुक्त होने के बाद शिष्य गुरुकृपा से भक्ति के उस स्तर तक पहुँच जाता है कि उसे विष्णु के वाहन विनतानंदन गरुड़ को उपदेश करने का पात्र माना जाता है । तब उसे अपने गुरु के साथ किए गए व्यवहार पर पश्चाताप होता है । ऐसे में अपनी कृतघ्नता पर प्रायश्चित करते हुए वह अपने को ही कोसता है कि,

अधम जाति मैं विद्या पाये ।
भयउँ जथा अहि दूध पिलाए ॥

इसमें क्या ग़लत है ? जातिप्रथा तो थी ही उस समाज में लेकिन ब्राह्मण गुरु ने शूद्र को न केवल शिष्य के रूप में अपनाया उसे विद्या प्रदान की उसके कल्याण के लिए भगवान शिव से कातरता पूर्ण प्रार्थना की । शंकर जी के शाप के बाद गुरु की प्रतिक्रिया देखिए,

“हाहाकार कीन्ह गुरु सुनि दारुण सिव साप ।
कम्पित मोहि विलोकि अति उर उपजा परिताप ॥
करि दंडवत् सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि ।
विनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ॥”

मंत्री जी को भगवान सद्बुद्धि प्रदान करें । भगवान की माया ही ऐसी हैं जो जीव को भ्रमित कर देती है ।

तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान ।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान ॥

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)

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