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बिहार में उद्योग क्यों नहीं है? बिहारी बाहर क्यों जाते हैं?

-अजीत भारती की कलम से-

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Positive India:Ajeet Bharti:
वेदान्ता समूह के चेयरमैन, श्री अनिल अग्रवाल जी बिहार के हैं। अपनी जड़ों को सदैव स्मरण करते हैं। एक ट्वीट के माध्यम से ज्ञात हुआ कि उनकी कंपनी ने पिछले 8 वर्षों में सरकार को ₹3.39 लाख करोड़ टैक्स के रूप में दिया है।

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यही नहीं, अपनी निजी संपत्ति का 75% हिस्सा उन्होंने परोपकार हेतु संकल्पित किया है। जिसने निर्धनता देखी है, वही उसकी पीड़ा समझ सकता है। टैक्स देने का कोई गौरव नहीं, बल्कि यह संतुष्टि कि लोगों के लिए उस पैसे से सड़क, चिकित्सालय, विद्यालय आदि का निर्माण हो सकेगा।

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अनिल अग्रवाल जी को नमन है। हम बिहारियों को अनपढ़, गँवार, असभ्य, कुरूप, श्रमिक आदि मान कर, ‘बिहारी’ पुकार कर गाली देने वालों के लिए यह कई उदाहरणों में से एक है। यदि अनपढ़ और गँवार बिहारी का ठप्पा ले कर भी हम में से ही कोई ₹3.39 लाख करोड़ टैक्स देता है, तो हमें ऐसे कई बिहारी चाहिए।

अब प्रश्न है कि बिहार में उद्योग क्यों नहीं है? बिहारी बाहर क्यों जाते हैं? जातिवाद में घिरे रहने के कारण यह स्थिति है?

बिहार में उद्योग न लगने का सबसे बड़ा कारण राजद है, दूसरे नंबर पर नीतीश कुमार आते हैं और तीसरे नंबर पर निर्लज्ज बिहार भाजपा जिसने नीतीश का बीस वर्ष सहयोग दिया।

राजनैतिक संरक्षण में पलती गुंडागर्दी के कारण कोई भी उद्योगपति, कितना ही भावुक क्यों न हो, बिहार में पैसे नहीं लगा सकता। रंगदारी टैक्स से ले कर सरकारी चक्करों में फँसना, राजनैतिक अनिश्चितता का माहौल यह सुनिश्चित करता है कि आप यहाँ आज कुछ बनाएँगे, अगली सरकार में आपसे किश्तों में गुंडा टैक्स लिया जाने लगेगा। नहीं देंगे तो आपके कर्मचारियों की हत्या होने लगेगी।

ये सारा दौर मैंने देखा है। मैं बेगूसराय से आता हूँ जहाँ सत्तर-अस्सी के पूर्वार्द्ध में कई भारी उद्योग लगे- थर्मल पावर, फर्टिलाइजर, रिफाइनरी- और साथ ही दो सौ छोटे उद्योग। ये सारे या तो डुबा दिए गए या क्षमता कम हो गई। केन्द्र की भी सहायता से चलने वाले उद्योग नष्ट किए गए।

सरकारें छाती पर चढ़ कर रोजगार माँगने से रोजगार नहीं देती। विशेषतः तब जब तीनों पार्टियाँ राज्य के लिए एक ही जैसा रवैया रखती हो।

बिहारी के गाली होने से समस्या नहीं है, किसी के कहने से हम वैसे हो नहीं जाते। समस्या इस बात से है कि भाजपा को सब एक विकल्प के रूप में देखते हैं, पर उन्होंने भी सत्ता में रह कर कुछ विशेष नहीं किया।

जहाँ तक बिहारियों के बाहर जाने की बात है, तो वह तो संविधान सम्मत है। जहाँ इच्छा होगी, नौकरी करेंगे, उद्योग लगाएँगे। अपने यहाँ नहीं है, तो दूसरे राज्य में जाएँगे। दूसरे राज्य में जा कर टैक्स तो उन्हीं को देते हैं, उनकी ही आर्थिक विकास यात्रा को बढ़ाते हैं।

सरकार यदि प्रयास नहीं करेगी तो आंदोलन या धरने से कुछ नहीं होगा। आंदोलन में आप सत्ता को विकल्प का डर दिखाते हैं। बिहार में किसी भी पार्टी को विकल्प का डर है ही नहीं।

जातिवाद केवल बिहार तक सीमित नहीं है। जातिवाद हर राज्य में है, हर पार्टी के प्रत्याशियों की सूची का आधार और आरंभ बिन्दु जाति ही है। बिहार की दुर्गति का कारण जातिगत वोट बैंक नहीं है।

किस पार्टी का एक जातिगत वोटबैंक नहीं है?

बिहार की दुर्गति का कारण है विजन/दूरदर्शिता का लोप। जातिगत वोट तो योगी जी को भी मिले, शिवसेना को भी मिले, जयललिता-करुणानिधि से ले कर रेड्डी और KCR तक को मिले। हर राज्य अपनी गति से आगे बढ़ रहा है।

बिहार में आगे बढ़ने का प्लान ही नहीं है। किसी को सुना है कि ‘हम बिहार में उद्योग लगाएँगे’? नहीं। सब कहते हैं कि रोजगार देंगे, परीक्षा कराएँगे। और दुर्भाग्य से वह भी नहीं हो पाता।

राज्य का विकास नौकरियों से नहीं होता। संभव ही नहीं। आरक्षण और नौकरियाँ सदैव सीमित रहेंगी। जब तक भौतिक उत्पादन या सेवा उत्पादन आपकी भूमि से नहीं होगा, आप एक उपभोक्ता समूह बन कर सिमटे रहेंगे।

कारखाने और उद्योग लगने से दो रुपए लगा कर चार बनाए जा सकते हैं। गर्त से निकलने का वही माध्यम होता है। बनाओ और बेचो। पर्यटन है तो उसको सुगम करो, बताओ और लुभाओ कि लोग वहाँ आएँ।

जाति अकाट्य और अनंत सत्य है। वह रहेगा। बिहार को विजन चाहिए। बिहार को सपने दिखाने वाला चाहिए। बिहार को मजदूरों की राजधानी से कहीं ऊपर, उत्पादन का केन्द्र न सही, उत्पादन की कुछ सीढ़ियों वाला राज्य बनने का स्वप्न दिखाने वाला चाहिए।

बिहार भाजपा एवम् विनोद तावड़े जी को अपना पूरा कैम्पेन इस एक बिन्दु पर केन्द्रित कर, जनता को उसे पूरा करने का विश्वास दिलाने पर बनाना चाहिए। यही एकमात्र तरीका है। बाकी हर तरीके ठगी से वोट चुकाने की पुरानी तकनीकें हैं।

साभार: अजीत भारती-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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