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श्री प्रेमानंदजी वर्तमान काल के अत्यन्त लोकप्रिय संत क्यों हैं?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
श्री प्रेमानंदजी वर्तमान काल के अत्यन्त लोकप्रिय संत हैं और उनकी प्रसिद्धि में निरंतर वृद्धि ही हो रही है। यह शुभ है, क्योंकि उनकी वाणी में प्रामाणिकता पाई है। उनमें अनुभवप्रसूत खरापन है। रसज्ञ और शास्त्रज्ञ दोनों हैं। भागवत, ब्रह्मवैवर्त, पद्म, हरिवंशादि पुराणों में सिद्धि है, सूरसागर में अवगाहन है, पर गीत गोविन्द की रमणतृषा वाली भावभूमि से पृथक मालूम होते हैं या उसे श्रीकृष्णतत्व की गूढ़, दुर्बोध लीला का एक प्राकट्य स्वीकारते हों तो हों, उसका उपदेश तो नहीं देते। पं. विद्यानिवास मिश्र ने गीत गोविन्द को भागवत की प्रौढ़ावस्था कहा था, उससे शायद ही सहमत हों। वे वृन्दावनवासी हैं और हित हरिवंश महाप्रभु की परम्परा में राधावल्लभ सम्प्रदाय से आते हैं। राधारानी की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकारते हैं और उन्हें किशोरीजू, लाड़लीजू कहकर माधुर्य से पुकारते हैं। पीताम्बर तो हैं ही, भाल पर राधाचन्दन और ब्रजरज का लेप करने के कारण पीताभ भासते भी हैं!

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विगत दिनों कुछ चर्चित और सफल हस्तियों ने उनके वृन्दावन स्थित श्रीहितराधा केलिकुंज धाम की यात्रा की, इससे और प्रकाश में आए। किन्तु यह जनसामान्य का दृष्टिदोष ही कहलाएगा, क्योंकि श्रीप्रेमानंदजी पूर्ण वैराग्य और लाड़लीजू में ही निष्ठा का उपदेश देते हैं। भजन मार्ग और नामजप के आग्रही हैं। आधुनिक जटिल मनुष्य का कलुष चेतना के आरोहण के बिना इतने भर से कैसे हो, पर इस दिशा में स्वयं का प्रामाणिक उदाहरण सामने रखकर मार्ग सुझाया, वह भी कम नहीं। उनके एकांतिक प्रवचन इधर नित्य ही सुने और पाया कि आध्यात्मिक दृष्टि उनकी सटीक और प्रभावी है। वृक्कों के असाध्य रोग से ग्रस्त हैं, पर जीवन्मुक्त और देहमुक्त की दशा में मालूम होते हैं। आरंभ में ये शिवोपासक और काशीवासी थे, फिर जाने किस प्रेरणा से वृन्दावन आए और श्रीचैतन्यमहाप्रभु के वचनों और श्रीश्यामाश्याम की रासलीला में डूबे। मार्ग परिवर्तन हुआ। नया पथ सूझा। श्रीराधारस सुधानिधि का एक श्लोक सुनने के बाद वे श्रीहरिवंश महाप्रभु की लीला में मग्न हो गए हैं।

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चूंकि वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं, इसलिए इन्द्रिय संयम का उपदेश देते हैं। युवाओं से ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का आग्रह करते हैं। युवतियों से कहते हैं कि विवाह तक ‘पवित्र’ रहें। सम्भोग को सुखभोग के बजाय संतानोत्पत्ति का साधन समझते हैं। रजनीश उनसे बिलकुल सहमत नहीं होते। वो कहते कि इन्द्रिय निग्रह और यौन दमन से कुंठा ही उत्पन्न हो सकती है, समाधि नहीं मिल सकती। मनोविश्लेषण की दृष्टि से रजनीश की बात सही हो सकती है। पर इसका दूसरा पहलू यह है कि विषबेल को पोसने से तो वह नष्ट होने से रही, उलटे उस वृत्ति का संस्कार प्रबल ही होगा। इसलिए देह के सुखों के प्रति एक निंदा-दृष्टि, त्याज्य का भाव रखना अध्यात्म पथ का प्राथमिक गुण है, क्योंकि पूरी तैयारी ही देहत्याग और भगवत्प्राप्ति की है। रजनीश के आश्रम व्यभिचार के अड्डे बन गए थे। “आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास” का मामला था। कपास ही ओटना हो तो हरिभजन का स्वांग नहीं होना चाहिए। मैं समझता हूं आज समाज में जैसी सघन यौन वृत्ति है और उससे उत्पन्न जैसी सामूहिक विक्षिप्तता है, उसका निवारण इन्द्रिय निग्रह के उपदेश मात्र से तो होने से रहा, फिर भी उस बात को बल से कहने का भी एक प्रताप है!

यह भी याद रहे कि रजनीश के समय का भारत आज के भारत से सर्वथा भिन्न था। तब सम्भोग की बात कहना क्रांति थी। आज सम्भोग की बात कहना रूढ़ि है। आज तो जो क्रांतदृष्टा होगा, वो उससे विपरीत बात ही कहेगा। श्रीप्रेमानंदजी की बहुतेरी बातें सौम्य और मधुर भाव से, चैतन्यता से उत्प्रेरित मालूम हुई हैं। ऐसे दो-चार संत और हो जाएं तो प्रचण्ड भोगवाद की आंधी थमे और मनुज शरीर के तल से ऊपर उठकर विचार करने को प्रवृत्त हो, इसी शुभेच्छा से उनको नमन करता हूं!

साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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