www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

मन बांधने की वस्तु क्यों है ?

-सुशोभित की कलम से-

Ad 1

Positive India:Sushobhit:
मन बांधने की वस्तु है। यह अश्वमेध का घोड़ा नहीं, जिसे बेलगाम छोड़ दिया जाए। यह तो मरीचिका का मृग है, जिसके लिए सम्यक् उदासीनता ही भली। देखकर अनदेखा कर दो तो ही ठीक। यह प्यास नहीं बुझाएगा, तृष्णा ही रचेगा।

Gatiman Ad Inside News Ad

ये सच है कि मन पर बांध बांधने का मन होता नहीं है। मन को आवारगी पसंद है। इससे पहले कभी मन को आवारगी के इतने औज़ार नहीं मिले थे, जितने आज मिले हैं। वो पूरा-पूरा दिन अन्यमनस्क ही विचरता रहना चाहता है। गांधी कहते थे, घड़ी भर चरखा चलाओ, मन शांत ना हो जाए तो कहना। उनके आसपास के लोग सोचते थे इसमें क्या तुक है, करने को और बहुत काम हैं। पर वास्तव में करने को इतने काम कभी होते नहीं, हमको लगता भर है कि बहुत व्यस्तता है। हमारे मालवे में इसीलिए कहते हैं, “काम कौड़ी का नहीं, फ़ुरसत घड़ी की नहीं।” पर चरखा चलाने से मन बंध जाता है। चरखा तो एक जंतर है। जीवन में ऐसे बहुतेरे चरखे हैं, मन को बांधने के जतन। दीखता है कि चरखे से धागा निकल रहा है, पर उससे बंधता मन है। वो मन की बुनाई है। मन का बुनकर कहां है? वह शिथिल ना हो जावे, चाहे उसे चेतना कहो, अवधान कहो, प्राण का संकल्प पुकारो!

Naryana Health Ad

गांधी कहते थे हाथ-पांव चलाओ। मेहनत के बिना खाई रोटी चोरी है! जितने काम हाथ से कर सकते हो, करो। बात छोटी है पर उसमें बड़ी गुणचर्या छिपी है। मैंने आज़माकर देखा है और पाया है कि उसमें शांति है, संतोष है। काम छोटा ही होता है, करने को कोई भी कर देगा, पर स्वयम् करें तो मूल्य है। रात को सोने से पहले स्वयम् से पूछें, आज मैंने कितने काम अपने हाथ से किए? पुराने लोग तो दिनभर ही किसी ना किसी उद्यम में खटते रहते थे! माजरा यह है कि आदमी चाहे जितना बड़ा हो जाए, उसके जीवन के नियम वही सदियों पुराने हैं। वो बदलने से रहे। वो प्राकृत हैं। मन मन ही है। आज का हो या सदी पुराना। जितना दौड़ेगा, उतनी वितृष्णा से भरेगा। हिरन जैसा मन लेकर कभी कोई सुखी नहीं हुआ। दु:ख की अनुभूति भी क्षीण हो जावे, वैसा ठूंठ फिर भले हो गया हो। सुन्न पड़ गया हो। वह तो और बड़ी हानि!

हिन्द स्वराज्य में लिखा है ना कि “ईश्वर ने आदमी की सीमा उसके शरीर से बांध दी, नाहक़ दौड़धूप करके हम दु:ख को ही न्योतते हैं।” बात यह है कि एक दिन में कोई कितना मन को दौड़ा लेगा, कितने समाचार सुन लेगा, कितने चुटकुलाें पर हँस लेगा और कितना मन बहला लेगा? जो वस्तु प्रस्तुत हुई है, वो राजभोग ही सही, उससे पेट तो नहीं भर सकेगा। मिठाई चखी जाती है, रोटी खाई जाती है और खाने से पहले कमाई जाती है। भोजन ही नहीं भूख को भी पकाना होता है। जीवन के असूल भी वही पुराने हैं, ज़माना लाख बदल गया हो।

ईश्वर की बनाई सभी वस्तुएं अपनी ही गति से चलती हैं। उसी गति से हम भी खटें तो ही सुख है। सूरज जैसे सूत-सूत ढलता है। सूरज कितने साल से चल रहा है पर अपनी गति से कितना बंधा है। उसका मन नहीं है, उसकी एक चेतना ज़रूर है। मन लेकर यहाँ किसको सुख मिला है, और बेलगाम मन तो क्लेश की गठरी है!

इस अड़ियल अश्व को बांधो!

साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Horizontal Banner 3
Leave A Reply

Your email address will not be published.