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प्रर्यावरण व जैव-विविधता के अनमोल खजाने की बर्बादी का असली जिम्मेदार कौन?

हर्रा, बहेड़ा, आंवला, चिरौंजी के पेड़ लगाने के नाम पर छत्तीसगढ़ में शुरू हुआ महाघोटाला ।

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Positive India:Dr.Rajaram Tripathi:
5- जून को सारा विश्व पर्यावरण दिवस(World Environment Day) मनाता है। हमारे इस बेहद खूबसूरत नीले ग्रह का पर्यावरण निर्धारण में इसकी जैव विविधता की मुख्य भूमिका है, यह कहना अनुचित न होगा कि जैव विविधता तथा पर्यावरण परस्पर अनन्योआश्रित हैं। यूं तो हम हर साल इसे मनाते हैं, पर क्या सचमुच हम अपने प्रर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण के लिए गंभीर हैं ??

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हाल में ही अपने यूरोप भ्रमण के दौरान वहां कई देशों के बोटैनिकल गार्डन तथा जंगलों का निरीक्षण करके मैंने पाया कि पश्चिम के देश अपने प्रर्यावरण के महत्व तथा बेशकीमती जैव संपदा के मूल्य को न केवल पहचानते हैं बल्कि उसके संरक्षण के कार्य में भी पूरी गंभीरता से लगे हुए हैं। अन्य देशों की तुलना में, भारत में ” प्रर्यावरण तथा जैव विविधता संरक्षण ” का मसला निर्विवादित रूप से, केवल बौद्धिक जुगाली तक ही सीमित है, जबकि जैव विविधता की दृष्टि से भारत सबसे धनी देशों में से एक है। *हमारे देश में पेड़़-पौधों की लगभग 46340 तथा कीट पतंगों की 57525 से भी अधिक प्रजातियां विद्यमान* हैं।

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केंद्र ने इसे राज्य सरकारो पर, तथा राज्य सरकारों ने इसे अपने स्वनाम धन्य ” वनविभाग ” के मत्थे डाल रखा है। हम पर सदियों तक राज करने वाले अंग्रेजों ने हमारे जंगलों की बेशकीमती वन संपदा के सुविधा पूर्वक, अधिकतम दोहन के दृष्टिकोण से वन विभाग की स्थापना की थी। अंग्रेज चले गए राज बदला पर वन विभाग का मिजाज नहीं बदला। प्रायः, खाओ- पिओ, और पचाओ,बेचने से बचे तो, वन भी बचाओ ,, के सूत्र वाक्य पर कार्य करने वाले इस विभाग को भला इस नामाकूल , अनुर्वर, सूखे विषय से क्या लेना देना । बेवजह एक बेचारे , बौद्धिक से उच्चाधिकारी को इस घोषित ” लूप लाइन ” पोस्टिंग के लिए नियुक्त करना पड़ता है। जबकि अधिकांशतः तो साहब बहादुर ” लूप लाइन ” पोस्टिंग के बजाय ” लूट लाइन ” पोस्टिंग के जुगाड़ में लगे रहते हैं।( मेरा अनुमान अगर गलत सिद्ध होवे तो,मुझे सर्वाधिक प्रसन्नता होगी)
वन विभाग द्वारा किए गए नीलगिरी , सागौन, बांस, रतनजोत आदि के ‌ एकल लाखों पर किए गए एकल प्रजाति वृक्षारोपण ने प्रर्यावरण व जैव विविधता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। दरअसल हजारों प्रजाति की अनमोल जैव विविधता से भरपूर लाखो, लाख एकड़ के प्राकृतिक जंगलों को काटकर, बेचकर वहां फिर से वृक्षारोपण के नाम पर नीलगिरी , सागौन , बांस के एकल प्रजाति के पौधों का रोपण करके उन्हें एकल पौध रेगिस्तान में बदल दिया है।

*लदन से ना खाड़ी से डीजल पेट्रोल मिलेगा अब बाड़ी से,,,*
एक दशक पूर्व यह नारा वन विभाग के द्वारा सड़कों पर लगाए पोस्टरों में जगह-जगह पर दिखाई देता था।, हालांकि इसमें केवल तुकबंदी के चलते बेचारे लंदन जिसका हमारे डीजल पेट्रोल के उत्पादन अथवा आपूर्ति से कोई लेना-देना नहीं था,उसे वह बेवजह घसीट लिया गया। जनता के गाढ़े पसीने की कमाई का हजारों करोड़ रूपया कागजी योजनाओं में स्वाहा करने के बावजूद डीजल पेट्रोल कहां से मिल रहा है, यह हम सब जानते हैं। इसी तरह अभी हाल में ही एक खबर पढ़ने में आई छत्तीसगढ़ सरकार अब प्रदेश में बड़े पैमाने पर हर्रा, बहेड़ा, आंवला, चिरौंजी के पेड़ लगाएगी। इसे समझने के लिए किसी का विशेषज्ञ होना कतई जरूरी नहीं है कि यह सलाह किसी ऐसे घाघ वन अधिकारी की ही हो सकती है, जो पहले अपने करतबों से सरकार तथा मुखिया को सम्मोहित कर चुका होगा।

एक बेहतरीन पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन , कुछ अंग्रेजी हिन्दी के भारी-भरकम अप्रचलित शब्दो का चतुराई से प्रयोग ,, दो चार पिछलग्गू चाटुकार सहयोगी अधिकारियों की सही मौके पर तयशुदा सजती हुई तात्कालिक संक्षिप्त टिप्पणियां , योजना की सफलता से चुनाव में लाखों-करोड़ों एकमुश्त वोट मिलने का सुखद सपना,और सबसे जरूरी , जरूरी सभी प्रकार की “औपचारिकताओं” के पूरा होने की पुख्ता ग्यारंटी । और भला क्या चाहिए ऐसी किसी बड़ी तथाकथित “गेम चेंजर -योजना” को पास करने,करवाने के लिए।

अब यह ज़िम्मेदार राजनीतिज्ञों के समझने की बात है कि, ऐसे शातिर अधिकारी कैसे अपने फायदों के लिए उनकी लोकप्रियता में स्थायी बट्टा लगाते हैं। जरा सोचें कि रतनजोत अथवा जेट्रोफा के असफल योजना के लिए अब किसी सरकारी अधिकारी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता, केवल तत्कालीन मंत्री, विशेषकर मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री के सिर पर ही असफल योजनाओं का ठीकरा फूटता है।

हमारे वर्तमान मुख्यमंत्री बड़े सुलझे हुए तथा जमीन से जुड़े हुए कृषक रहे हैं, अतएव आशा है वह इन योजनाओं के पीछे की वास्तविक हकीकत को भी जल्द ही समझ जाएंगे।

बहरहाल हम इस महत्वाकांक्षी योजना के पीछे छिपी हकीकत को भी समझें। दरअसल ऐसी योजना के तहत जो पौधे लगते हैं, यह सब वन विभाग के द्वारा वन समितियों से तैयार करवाए जाते हैं। इन समितियों के सदस्य प्राय: गरीब आदिवासी मजदूर होते हैं। जिन्हे केवल उनकी दैनिक मजदूरी वह भी न्यूनतम दर से भी कमतर दर पर दी जाती है, इन वन समितियों के खाते का संचालन अनिवार्य रूप से विभाग के कर्मचारी अधिकारी करते हैं। समितियों को तो पता भी नहीं रहता कि, उनके नाम पर खातों में लाखों करोड़ों रुपए आए और चले भी गए। ऐसी कितनी ही वनसमितियां है जिन्होंने पिछले वर्षों में करोड़ों रुपए के पौधे तैयार कर वन विभाग को बेचा,पर इन समितियों के अभागे सदस्यों के झोपड़ों में अगर आप जाएंगे तो इनके पास संपत्ति के नाम पर दो-चार टूटे-फूटे बर्तनों के अलावा कुछ भी नहीं बचा है। सारी मलाई विभाग के कर्मचारी और अधिकारी मिलकर खा जाते हैं और आदिवासी मजदूर आधी अधूरी मजदूरी पाते हैं, वह भी डांट डपट व टालमटोल के साथ।

हां, तो बात हो रही है हर्रा, बहेड़ा, आंवला और चिरौंजी वृक्षारोपण की महत्वाकांक्षी योजना की। पहला कारण तो यह है कि, वन विभाग को इन की नर्सरी तैयार करना सबसे आसान लगता है, क्योंकि हमारे बचे खुचे जंगलों में इनके पेड़ अभी भी मौजूद हैं, इसके बीज जंगलों से यह मुफ्त में एकत्र करवा लेते हैं। सराय हकीम के बीजों से उनके पौधे बड़े आसानी से तैयार हो जाते हैं। तीसरा यह कि इन पौधों में 10- 15 साल बाद ही फल लगते हैं । 15 साल का अरसा सरकारों तथा जनता की याददाश्त के हिसाब से एक लंबा समय होता है, इस बीच सरकार तीन बार पलट जाती है,इसलिए 15 साल के बाद ऐसे वृक्षारोपण में कितने पौधे लगे, कितना खर्चा हुआ, कितने पौधे बचे, चित्रों में फैलाए कितना फल इकट्ठा हुआ तथा इस सारी कसरत से से कौन कितना लाभान्वित हुआ, आदिवासी परिवारों को इससे कितना फायदा हुआ, इन माथापच्ची की कोई जरूरत नहीं रहती।

अब एक बार इनकी लाभदायकता का आकलन करें। हर्रा बहेड़ा आंवला के बाजार भाव और मजदूरी दर दोनों के बीच अनुपात का निष्कर्ष यह है कि हर्रा बहेड़ा आदि के फल जंगलों में जमीन पर पड़े रहते हैं, पर गांव के लोग इसे तोड़ कर,बिन कर इकट्ठा कर बाजार में बेचने को घाटे का सौदा समझते हैं। यही उत्पादन मूल्य तथा मजदूरी अनुपात की व्यावहारिक समस्या जेट्रोफा यानी रतनजोत में भी आई थी। तो जाहिर है कि, कोई लाभान्वित हो अथवा ना हो लेकिन हर्रा, बहेड़ा, आंवला, चिरौंजी रोपण की योजना की से कम 70% राशि को हड़पने करने तथा उसे हजम करने तक की फुल फ्रूफ योजना संबंधित सरकारी मशीनरी ने निश्चित रूप से तैयार कर लिया होगा। यह बानगी तो बस ,चावल की हांडी की एक चावल की हकीकत बयां करती है, बाकी पूरी हांडी के चावल के बारे में आप इससे अंदाज लगा सकते हैं।

प्रर्यावरण के संरक्षण के लिए सरकारी प्रयासों का परिणाम तो हमारे सामने ही है। अतएव अब हम सब को इन के संरक्षण के लिए आगे आना ही होगा। इसके लिए सतत जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। केवल साल में एक बार प्रर्यावरण समारोह या
प्रर्यावरण दिवस मनाने से कुछ नहीं होने वाला। विभिन्न सरकारों के द्वारा वोट आधारित राजनीति के चलते वन भूमि पट्टा वितरण की राजनीतिक एजेंडे ने जंगलों को अभूतपूर्व क्षति पहुंचाई है। दुर्भाग्यवश, वोट बैंक की राजनीति के चक्रव्यूह में फंसकर इन वनों के असली राजा यहां के मूल निवासियों ने,अपने लाखों साल के प्राकृतिक आवास को, साल के 12 महीने कुछ न कुछ वनोपज संपदा प्रदान करने वाले अपने जंगलों के खजाने को, अपनी ही सदियों की सेवित भूमि का सरकारी स्थायी अधिकार पट्टा प्राप्त करने के प्रयासों के तहत साफ कर डाला। विगत 20 वर्षों में कुल कितने वन संपदा तथा जैव विविधता के खजाने से भरपूर शानदार जंगल भूमि अधिकार पट्टा के नाम पर सरकारी नीतियों की भेंट चढ़ गए, इनके जिंदा आंकड़े दंग करने वाले हैं।

जिंदा उदाहरण के तौर पर, हमारा बस्तर अपनी समृद्ध ” जैव विविधता ” के लिए देश विदेश में प्रसिद्ध है। ल्लेखनीय है कि बस्तर की कई वनौषधियों आज विलुप्त होने की कगार पर खड़ी है। जैसे कि एक समय में बस्तर में भरपूर मात्रा में पाईं जाने वाली सर्पगन्धा,मजूरगोड़ी, रसना जड़ी, तेलिया कन्द, कलिहारी,क्षीर कन्द,पाताल कुम्हड़ा ,इन्द्रायन आदि आज कन्ही पर भी दिखाई नहीं देते। इसी प्रकार पैगोलिन,सफेद नेवला,मूषक हिरन,गुलबाघ, गोह,वन भैस, आदि जो कि बस्तर की एक तरह से पहचान थी,आज खतरे में हैं। बस्तर की दुर्लभ प्रजाति की अदभुत मैना तो अब किवदन्ती बनकर रह गई है।

हमारी इस अनमोल “जैव विविधता” के लगातार छीजते खजाने के लिए, वनों की हर साल लगने वाली ” सर्वग्राही आग ” भी एक बहुत बड़ा बड़ा खतरा है। वनों की आग, सुरसा की भाँति पेड़, पौधे, लताएं,झाड़ियाँ, जीव, जन्तु, कीट, पतंगे, मित्र जीवाणु सब कुछ लील जाती है,, जिसे कि तैयार होने में लाखों साल लगते हैं। कई दुर्लभ प्रजाति की वनौषधियाँ भी इसी आग की भेंट चढ़ गईं । जंगलों की आग को रोकने के सरकारी प्रयास केवल कागजी खाना पूर्ति तक ही सीमित हैं। जन जागरूकता के नाम पर चन्द ” साइनबोर्ड ” राष्ट्रीय राजमार्ग पर लगे हैं। अब अपनी “साइन” खो चुके इन ” साइन बोर्डों ” के देखकर अगर शर्म के मारे, यह जंगल की आग सवंय ही बुझ जाये तो अलग बात है, वरना जंगल तो हर साल, तब तक, आग के हवाले होते ही रहेंगे, जब तक कि जंगल पूरी तरह से समाप्त ना हो जाए। फिर तो ना रहेगा बांस और न रहेगा बांसुरियों का झमेला।
और फिर,नहीं रहेगी “प्रर्यावरण दिवस” और ” जैव विविधता दिवस ” वगैरह मनाने का दिखावा करने की जहमत ।

लेखक:डा.राजाराम त्रिपाठी-पर्यावरण संरक्षण हेतु “अंतरराष्ट्रीय हरित योद्धा-अवार्ड” प्राप्त(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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