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माँसभक्षी होने के लिए महामूर्ख और महानीच होना आवश्यक क्यों है?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
कुतर्की अपना नाश स्वयं ही करता है और अपने ही तर्कों के जाल में स्वयं को फाँस बैठता है- माँसभक्षी इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। माँसभक्षी अकसर कहता है कि “पेड़-पौधों में भी तो जीवन होता है!” अतीत में उसके इस कुतर्क का सम्पूर्ण समाधान किया है, आज एक और भिन्न दृष्टि से इसका निराकरण करते हैं।

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जब आप किसी माँसभक्षी से कहते हैं कि जीवहत्या का त्याग कर दो तो वह तुरंत कहता है कि “पेड़-पौधों में भी तो जीवन होता है!” उसका आशय यह है कि चूँकि शाकाहारी फल-वनस्पति-अन्नादि का सेवन करते हैं और उनमें प्राण होता है, इसलिए वे भी माँसभक्षी जैसे ही हत्यारे हैं।

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अगली बार जब कोई माँसभक्षी आपसे यह बात कहे, उसे अपने पास बुलाकर बिठाएँ और उससे पूछें, “पेड़-पौधों में जीवन होता है, यह तो तुम मानते ही हो ना?” वो कहेगा, “बिलकुल, वैज्ञानिक-शोधों से यह सिद्ध हुआ है, जगदीशचंद्र बसु कह गए हैं, हाल ही के अनेक अध्ययन भी यही बताते हैं।” इस पर आप उससे कहें, “और पशु-पक्षियों में जीवन होता है, यह तो जानते ही हो।” इस पर वह कहेगा, “स्वाभाविक है कि उनमें जीवन होता है।” अब आप उससे कहें, “मनुष्य में भी जीवन है, यह भी सच ही है?” तब वो कहेगा, “आप कैसी बातें करते हैं, मनुष्यों में जीवन होता है, यह भी कोई कहने की बात है, यह तो स्वत:प्रमाणित है।”

अब आप उससे कहें, “चूँकि पेड़-पौधों में जीवन होता है, पशु-पक्षियों में जीवन होता है और मनुष्यों में जीवन होता है, और शाकाहार से माँसाहार का तर्क सिद्ध होता है, तब माँसाहार से क्या नरमाँस के सेवन का तर्क भी स्वत:सिद्ध नहीं होता?” अब वह थोड़ा घबड़ायेगा।

तब आप उससे पूछें, “अगर पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और मनुष्यों- सभी में समान रूप से जीवन है, तब तो किसी पेड़ से सेब तोड़ना और किसी मनुष्य की गर्दन काटना एक जैसी बात हो गई? फिर हम यह दृश्य देखकर क्यों प्रसन्न होते हैं कि एक सुंदर अभिनेत्री मुस्कराते हुए आती है और पेड़ से सेब तोड़ती है, जबकि मनुष्य की हत्या का दृश्य अरुचि से भरता है और पशुओं की हत्या करने वाली वधशालाओं में भी कैमरा आदि ले जाना प्रतिबंधित होता है और पशुवध को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने पर उसे हिंसक दृश्य (ग्राफिक कंटेंट) कहकर उस पर सोशल मीडिया के द्वारा रोक भी लगाई जा सकती है? जब सभी में समान जीवन है, तो ऐसा भेद क्यों है?”

अब माँसभक्षी किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जावेगा। क्योंकि माँसभक्षी होने के लिए महामूर्ख और महानीच होना आवश्यक है। जिसमें बूँदभर भी बुद्धि है और रंचमात्र भी गुण है, उससे यह महापाप वैसे ही छूट जावेगा, जैसे स्नान करने पर देह से मैल छूट जाता है!

आपके यों तर्क करने पर वह माँसभक्षी कहेगा, “आप कैसी बातें करते हैं, पेड़ से सेब तोड़ने और मनुष्य की गर्दन काटने में अंतर है।” अब वह अपने ही तर्कजाल में स्वयं उलझ गया है। अगर उससे पूछो, “क्या अंतर है?” तो आप पाएँगे कि वह वे ही सब तर्क देगा, जो माँसाहार का विरोध करने वाले माँसभक्षियों को देते हैं।

यही कि मनुष्यों की चेतना पेड़-पौधों से अधिक विकसित होती है, उनके पास दु:ख और पीड़ा अनुभव करने की क्षमता होती है, उनके पास मस्तिष्क और स्नायुतंत्र होता है, वे पेड़-पौधों की तरह अचल नहीं होते, आदि। तिस पर अगर माँसभक्षी से कहा जाए कि “ठीक यही भेद पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों में भी है कि प्राणियों की चेतना पेड़-पौधों से अधिक विकसित होती है, उनके पास दु:ख और पीड़ा अनुभव करने की क्षमता होती है, उनके पास मस्तिष्क और स्नायुतंत्र होता है, वे पेड़-पौधों की तरह अचल नहीं होते, तब तुम क्या कहोगे?” अब वह माँसभक्षी पूरी तरह से निरुपाय हो चुका होगा।

तब आप अपना तुरुप का इक्का फेंकेंगे, यह कहकर कि “जैविकी में प्राणियों का विभाजन पाँच वर्गों में किया गया है, उसमें एक एनिमल किंगडम है और एक प्लांट किंगडम है, और मनुष्य एनिमल किंगडम का हिस्सा है, इन अर्थों में बायोलॉजी की दृष्टि से मनुष्य और पशु समान हैं और उनमें और पेड़-पौधों में बुनियादी भेद है!”

प्लांट और एनि​मल किंगडम के अलावा तीन अन्य जैविक-किंगडम फंगी, प्रोटिस्टा और मोनेरा हैं और वे सूक्ष्म हैं। जीवन का स्थूल प्राकट्य पेड़-पौधों और प्राणियों के रूप में हुआ है, जिनमें मनुष्य प्राणी-जगत का हिस्सा है। इसी से बॉटनी और ज़ूलॉजी विज्ञान की दो भिन्न शाखाएँ हैं। जैविकी की दृष्टि से उभयचर, जलचर, नभचर और स्तनपायी (यानी मैमल्स, इनमें मनुष्य आते हैं) एक ही कोटि में हैं और प्लांट्स एक भिन्न कोटि में। इन अर्थों में तकनीकी रूप से- किसी पशु या पक्षी की हत्या किसी मनुष्य की हत्या के ही समान है- और भले ही जीवन का प्राकट्य पेड़-पौधों में भी हुआ है, लेकिन उनकी चेतना, मस्तिष्क, बुद्धि, संवेदना का विकास एनिमल किंगडम के प्राणियों- यानी मनुष्य और पशु-पक्षियों- जितना नहीं हुआ है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि पेड़ों को निर्विकार होकर काटा और जंगलों को निर्द्वंद्व होकर जलाया जा सकता है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि किसी पेड़ या पौधे से फल, सब्ज़ी या अन्न लेना किसी पशु या मनुष्य की हत्या करने के समान नहीं है और यह जीवविज्ञान के द्वारा प्रमाणित तथ्य है।

वह माँसभक्षी- जिसने आपको यह तर्क दिया था कि “पेड़-पौधों में भी तो जीवन होता है!” और यह कहकर उसने स्वयं को अशिक्षित, बुद्धिहीन और विमूढ़ सिद्ध कर दिया था- अब तक पूरी तरह से निरुत्तर होकर बग़लें झाँकने लगेगा। तब आप उससे पूछ सकते हैं कि “अगर पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों और मनुष्यों में समान रूप से जीवन होता है तो केवल मनुष्यों की ही हत्या को अपराध क्यों घोषित किया गया है, शेष की हत्या को क्यों नहीं?”

इस पर वह हकलाते हुए इतना ही कह सकेगा कि “चूँकि हम मनुष्य हैं, इसलिए हम मनुष्यों की हत्या को ही अपराध समझते हैं, शेष की हत्या को नहीं।” तब अगर उससे कहा जाए कि “क्या इसी तर्क के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जो आर्य है वह अनार्य की हत्या को, जो श्वेत है वह अश्वेत की हत्या को और जो बलवान है वह दुर्बल की हत्या को न्यायोचित ठहरा सकता है- क्योंकि यह तो विशुद्ध फ़ासिज़्म होगा”- तब वह माँसभक्षी क्या उत्तर देगा?

उसके पास कोई उत्तर नहीं है, क्योंकि उसके पास कोई प्रश्न नहीं हैं और उसके पास प्रश्न इसलिए नहीं हैं, क्योंकि प्रश्न पूछके और मनन करके अपने में सुधार लाना विवेकवानों की रीति है, जो कि माँसभक्षी हो ही नहीं सकता- प्रलय के दिन तक एक क्षण को नहीं हो सकता।

अगली बार जब कोई माँसभक्षी आपसे कहे कि “पेड़-पौधों में भी तो जीवन होता है!” तो उसे यह लेख दिखला देवें। अगर वह तनिक भी गुणशाली होगा तो तुरंत ही माँसभक्षण का त्याग कर देगा। और अगर वह महानीच होगा- जो​ कि वह है ही- तो उसके कर्म ही उसको दण्डि​त करेंगे और वह सभ्य-समाज की श्रेणी से स्वयं ही बहिष्कृत हो चुका होगा, आपको इसमें कुछ नहीं करना है। इति!

साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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