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संजय सिंह: सियासत में तमाशा

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
सियासत में ये तमाशा होते रहना चाहिए। अच्छा लगता है। लगातार केवल जेल होते रहना सियासत के कदरदानों को नीरस कर देता है। एक दिशा में पांच कदम बढ़ जाने पर छठा कदम वापस भी होना चाहिए। आम आदमी पार्टी के लगातार कई नेताओं को जेल होने के बाद, एक की वापसी भी होनी चाहिए। उस वापसी में जलसे जश्न अलग से दिखनी चाहिए।

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मीडिया के कैमरे का मूंह जेल के फाटक की तरफ होनी चाहिए। रिपोर्टरों की रिपोर्टिंग में गति बढ़ती जानी चाहिए। जमानत के बल पर जेल का फाटक खुलते ही मीडिया की माइक तेजी से एक बाईट के लिए रेस करती दिखनी चाहिए। यह सियासत का सबसे रोमांचकारी फ्रेम होता है।

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किसी पक्ष विपक्ष के खिलाफ एकतरफा कार्रवाई थोड़ी संतुलित होती दिखने लगती है। डिफेंसिव राजनीति अचानक से आक्रमणकारी राजनीति के रूप में दिखने लगती है। न्यायपालिका में जनविश्वास का एक नया अमलीजामा दिखने लगता है। टूटता बिखरता लोकतंत्र बिल्कुल दुरुस्त दिखाई पड़ने लगता है। अब सियासत बड़ा सुंदर दिखाई देने लगता है।

सियासत में एक तरफ चाय बेचकर पुरुषार्थ स्थापित करने वाला सत्ता के शीर्ष तक पहुंच सकता है। तो दूसरी तरफ टिकट को काला बाजार में बेचकर धनउगाही करने वाला उसी धन से राज्यसभा की टिकट तो अफोर्ड कर ही सकता है। और वह सत्ता के शीर्ष पर नहीं तो कम से कम सत्ता के शीर्ष भवन में तो प्रवेश पा ही सकता है। सियासत किसी को नाराज नहीं करती। भले बुरे सबको मौका देती है। इसको लोकतंत्र का संतुलन के रूप में देखा जाता है।

जमानत पर रिहाई का अर्थ यह नहीं की मुकदमे की मेरिट खत्म हो गई हो। मेरिट पर बहस बची हुई है। जमानत पर रहते हुए ट्रायल जारी रह सकता है‌। और सजा भी हो सकती है। फिर जेल। फिर कैमरे और माइक उल्टे पांव एक बार और रेस में। मीडिया के फ्रेम में हलचल तेज। अदालत पर उंगली। एजेंसियों के दुरुपयोग का प्रश्न। सियासत की हलचल फिर एक बार तेज। फ्रेम के बाहर सियासत के कदरदानों की नजरें एक बार फिर तमाशबीन। फिर एक तमाशा। यह भी सुंदर।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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