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मुसलमानों को अभी तक तो यही लग रहा था कि वे भारत जीत लेंगे

-कुमार एस- की कलम से-

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Positive India:Kumar S:
मुसलमानों को अभी अभी तक तो यही लग रहा था कि वे भारत जीत लेंगे।
उन्हें लगता है कि उन्होंने 600 साल राज किया, बीच में अंग्रेज टपक पड़े वरना सबकुछ उनका ही था। अलीगढिया इतिहासकारों के अनुसार आजादी की लड़ाई mस्लिम अपना खोया राज वापस प्राप्त करने के लिए लड़े, खून बहाया लेकिन 1947 में दो छोटे भूमि के टुकड़ों से ही उन्हें संतोष करना पड़ा। जब तक यहूद और हनुद फतेह नहीं कर लिए जाते, कयामत सम्भव नहीं और उसके बिना हिसाब लटका हुआ है और अभी हूरें भी काफी दूर है।
भारत विजय का उनका सपना अब भी अधूरा है।
आज जब वे भारत में अपनी स्थिति देखते हैं तो कहीं से भी विजेता जैसी फीलिंग या सम्मान उन्हें नहीं मिल पा रहा, उल्टा उन्हें पता है, सम्मान तो दूर हिन्दू मन अतिशय घृणा के साथ सामने खड़ा दिखाई देता है।

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गंगा जर्मनी तहजीब और सेक्युलरों द्वारा खड़े किए गए कृत्रिम टिन टप्पर उड़ चुके हैं, खुला मैदान है, जो छिपा कर करते थे उसकी गुंजाइश नहीं है, चारों तरफ खुला माहौल है, सबको सबकुछ दिख रहा है।

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मुसलमानों के अनेक स्थापित विश्वास छिन्न भिन्न हुए हैं।
कश्मीर, जिसे वे बिल्कुल पककर तैयार हुई, अपनी प्लेट में सजी बोटी के रूप में देख रहे थे, अब बहुत दूर खिसक गया है।
उनका यह विश्वास भी भग्न हो चुका है कि दीन की लड़ाई में फरिश्ते आते हैं और सहायता करते हैं। पूर्व में जब उनके आक्रमण होते थे, उनके उस्ताद उन्हें पेट भरकर ऐसे किस्से सुनाते थे और जिन्हें वे बिल्कुल सच भी मानते थे।
आज वे जब ग्लोबल स्थिति देखते हैं तो उन्हें कहीं से भी फरिश्तों का फ़ भी आता हुआ दिखाई नहीं देता।

उनका एक अंधविश्वास यह भी था कि जब भी काफ़िर उनसे अधिक ताकतवर होगा, तो दुश्मन के ही खानदान में कोई दीनी यौद्धा पैदा होगा, जिससे हारी बाजी जीत ली जाएगी।
उनके इस विश्वास का आधार इतिहास में वे मंगोल और तुर्क हैं जो कभी इस्लाम के दुश्मन थे लेकिन फिर उन्हीं वंशों में कुछ कन्वर्ट होकर मुस्लिम यौद्धा हुए जिन्होंने दुनिया भर में इस्लाम का प्रसार किया और कहर बरपाया।
भारत में कुछ गद्दार हुए जिन्हें वे इसी नजरिए से देखते हैं। खिलाफत आंदोलन के समय अली बंधुओं के भी महात्मा गांधी के प्रति यही विचार थे।

वर्तमान लिबरल और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट जो हिन्दू अथवा ब्राह्मण नाम से उनके पक्ष में बेटिंग करते हैं उन्हें भी वे अल्लाह द्वारा भेजी गई इस्तेमाल लायक सामग्री ही मानते हैं।
किंतु बदली हुई परिस्थितियों में इसके कोई आसार दिखाई नहीं देते कि ये प्रभावी हो पाएंगे और उनके अधूरे सपने को पूरा कर पाएंगे।

विज्ञान, तकनीकी और इंटरनेट से भविष्य का जो भी चित्र बनता है, उलेमा वर्ग बहुत चिंतित हैं।
इस्लाम की एक और चिंता बिगड़ती छवि को लेकर है, यह भी है कि दुनिया भर में अधिकांश आतंकी गुट इस्लाम से सम्बंधित हैं, सबसे बड़ी बात वे आतंकवादी समूह, यह खून खराबे वाली भयानक पैशाचिक लड़ाई इस्लाम के #मिशनको_आगे_बढ़ानेके_नाम पर अथवा प्रोफेट की इच्छा मानकर लड़ रहे हैं।

उनके स्वप्न भंग का कारण यह भी है कि खिलाफत के नाम पर बना तुर्की साम्राज्य 100 साल पहले ही टूट कर अनेक देशों में बंट गया जो सभी एक दूसरे के खून के प्यासे हैं और उनके पुनः एक होने के आसार दूर दूर तक दिखाई नहीं देते हैं।

दुनिया की इन घटनाओं का प्रभाव भारत के मुसलमानों पर भी पड़ता है और भारत में गजवा ए हिन्द का उनका स्वप्न दिनों दिन धुंधला और बिखरा हुआ सा लगता है।
संसार भर में उनके आतंक पर लीपापोती करने वाला लिब्रान्दू वर्ग भी नंगा हो गया। आज उनकी लाल कच्छी के नीचे झांकती हरी चड्डी के कारण उनके ये तर्क भी प्रभाहीन हो गए कि आतंक का मजहब नहीं होता अथवा ये गन तो अमरीका ने पकड़ाई है, अथवा गरीबी और अनपढ़ होने के कारण वे दंगाई व्यवहार करने वाले हैं।
इनके स्वप्नभंग का एक कारण पाकिस्तान की दुरावस्था भी है। अब तक वे पाकिस्तान को रियासते मदीना मानकर चल रहे थे और आरम्भ में तो उन्होंने यही सोचा कि मात्र दस ही वर्षों में वे फतेह इंढिया कर लेंगे, यह अत्यंत आसान लक्ष्य खिसकते खिसकते पफी के 2047 मिशन तक खिंच गया है इस बीच पाकिस्तान तो थक चुकी बुढ़िया वेश्या जैसा बन गया है जो सरेराह बोली लगवाकर अपनी बिक्री के लिए प्रस्तुत है। जिसे इन्होंने निरन्तर ऊर्जा देने वाली कमसिन माशूका समझा था वह भयंकर मवाद से पीड़ित मरणासन्न बुढ़िया निकल गई।
ऐसे तमाम करणों से हताश निराश कुंठित mस्लिम अब दंगा फसाद कर तो देते हैं लेकिन अब उनकी वह अतीत वाली धुनक और वही प्रसिद्ध खेल टीम a b c d चल नहीं पाता। इसमें हिन्दू जागरूकता और सोशल मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है।
(अच्छा लगा तो दूसरा भाग लिखूंगा।)
साभार:कुमारsचरित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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