www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

इज़रायल दुनिया का इकलौता यहूदी-राष्ट्र है!

-सुशोभित की कलम से-

Ad 1

Positive India:Sushobhit:
दुनिया में यहूदियों की आबादी 1.6 करोड़ ही है, इनमें भी 63 लाख तो अकेले इज़रायल में रहते हैं। अमेरिका में 57 लाख यहूदी हैं। इज़रायल और अमेरिका- इन दो देशों में यहूदियों की 81 प्रतिशत आबादी है।

Gatiman Ad Inside News Ad

इसकी तुलना में आज दुनिया में 50 से ज़्यादा इस्लामिक देश हैं। अनेक ऐसे देश भी हैं जो इस्लामिक नहीं हैं- जैसे भारत- लेकिन वहाँ मुसलमानों की बहुत बड़ी आबादी रहती है।

Naryana Health Ad

यहूदियों की 1.6 करोड़ आबादी की तुलना में मुसलमानों की आबादी 1.9 अरब है और ये दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता धार्मिक-समूह है। आज दुनिया में हर चार में से एक व्यक्ति मुसलमान है। प्यू रिसर्च कहती है कि 2050 तक मुसलमानों की वैश्विक आबादी 2.8 अरब होगी- लगभग ईसाइयों के बराबर।

महज़ 1413 साल पहले अस्तित्व में आए एक मज़हब के पास दुनिया की एक चौथाई आबादी और 50 से ज़्यादा स्वयं के मुल्क होना एक बेहतरीन ग्रोथ-रेट है! एवल्यूशनरी मानदंडों पर आला दर्जे की!

अगर अल्पसंख्यकवाद के तर्क से सोचें तो बहुसंख्यक मुसलमानों की तुलना में अत्यंत अल्पसंख्यक यहूदी क़ौम इस दुनिया में संरक्षण, समर्थन और संवर्द्धन की अधिक अधिकारी है या नहीं? बिना कोई निष्कर्ष निकाले मैं यह तथ्य पाठकों के सामने ठेल दे रहा हूँ।

29 नवम्बर 1947 को जब संयुक्त राष्ट्र ने पार्टिशन प्लान फ़ॉर पैलेस्टाइन की सिफ़ारिश रखी थी और टू-नेशन थ्योरी का प्रतिपादन करते हुए एक स्वतंत्र अरब मुल्क और एक स्वतंत्र यहूदी मुल्क की स्थापना की पेशकश की थी तो यह कोई रैंडम सिलेक्शन नहीं था। इस्लाम के अस्तित्व में आने से भी पूर्व इज़रायल यहूदियों की पवित्र-भूमि रही है, वह उनका होमलैंड था जहाँ से अतीत में वो खदेड़े गए थे।

1947 में ही एक और टू-नेशन थ्योरी प्रभावशील हुई थी- हिन्दुस्तान और पाकिस्तान। लेकिन हिन्दुस्तान के बँटवारे के बाद पाकिस्तान को जो भूमि एक इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना के लिए मिली, उस पर मुसलमानों का वैसा कोई ऐतिहासिक, सामुदायिक, भावनात्मक दावा नहीं था, जैसे इज़रायल पर यहूदियों का था। लेकिन पाकिस्तान की ज़मीन को सहर्ष स्वीकारा गया, उलटे यह मलाल जताया गया कि कश्मीर क्यों छूट गया, वह भी चाहिए। जूनागढ़ भी। हैदराबाद भी!

भाईजान, ये ईमान वाली बात तो नहीं है!

इज़रायल के साथ समस्या यह थी कि वह न केवल यहूदियों, बल्कि ईसाइयों और मुसलमानों की भी पवित्र धरती थी, अलबत्ता यहूदियों का दावा पहला और ज़्यादा पुराना था।

यहूदी कह सकते हैं, हमारे पास एक ही मुल्क है, हम यहाँ से कहाँ जाएँगे? मुसलमानों के पास पचास से ज़्यादा मुल्क है और एक बहुत विस्तृत अरब-भूमि है, फ़लस्तीनियों का पुनर्वास वहाँ क्यों नहीं हो सकता?

वो ईरान से भी पूछ सकते हैं कि तुम हमास को हथियार दे सकते हो तो फ़लस्तीनियों को अपने यहाँ रहने की ज़मीन क्यों नहीं दे देते?

यही सवाल 50 से ज़्यादा मुस्लिम मुल्कों से भी पूछा जा सकता है कि ज़रूरत पड़ने पर अपने भाई-बंदों को अपने यहाँ बसाने का बंदोबस्त कर सकते हैं या नहीं?

अगर फ़लस्तीनियों की दलील यह है कि यरूशलम में हमारी मुक़द्दस ज़मीन है, उसे हम नहीं छोड़ सकते, तो क्या वे तीर्थयात्रियों की तरह वहाँ सालाना आवाजाही करने का विकल्प चुनेंगे या वहीं पर बसे रहने का? और अगर वो यह कहते हैं कि जहाँ पर हम पहले से बसे थे, वहाँ अपने बाद आई किसी दूसरी जाति को बसने नहीं देंगे, तो यही तर्क दुनिया के दूसरे मुल्क अगर रोहिंग्या, सीरियाई, अल्जीरियाई, मोरक्कन, बांग्लादेशी आदि शरणार्थियों-घुसपैठियों पर लागू करें तो?

क्या वजह है कि मुस्लिम बहुसंख्या वाले मुल्कों में अल्पसंख्यक वर्ग न के बराबर है, सांस्कृतिक बहुलता की बात तो रहने ही दें? लेकिन पूरी दुनिया में फैले मुस्लिम डायस्पोरा को यह अपेक्षा ​है कि दुनिया के दूसरे देश उन्हें न केवल रहने को जगहें दें, बल्कि उनके संविधान उन्हें अपने दक़ियानूसी शरीयत क़ानून का पालन करने से भी रोकें नहीं। वे दुनिया में जिस जगह जाएँगे, एक प्राउड मुस्लिम पहचान लेकर जाएँगे, लेकिन ख़ुद अपनी बहुसंख्या वाले मुल्कों में दूसरे मज़हबों की गर्वीली पहचानों से उन्हें ऐतराज़ होगा।

यह साभ्यतिक संघर्ष की रेसीपी है, जब आप किसी दूसरे को अपने स्पेस में एकोमोडेट नहीं करना चाहते, लेकिन ख़ुद ये उम्मीद रखते हैं कि सब जगहों पर आपको इज़्ज़त के साथ समायोजित किया जावे।

चलते-चलते एक और बात सुनिये।

ऊपर मैंने बताया कि दुनिया में यहूदियों की आबादी 1.6 करोड़ है और उनके पास अपना इकलौता मुल्क इज़रायल है। लेकिन दुनिया में एक कुर्द जाति भी है, जिसकी आबादी यहूदियों से दोगुनी 3.5 करोड़ के आसपास है। पर उसके पास अपना एक भी मुल्क नहीं! यह दु:खियारी और कमनसीब क़ौम विस्थापितों की तरह ईरान, इराक़, तुर्की और सीरिया में रहती है और अपना कोई सम्प्रभु राष्ट्र न होने के कारण यह बुनियादी मानवाधिकारों से भी वंचित है। कुर्द लोग अपना स्वयं का राष्ट्र चाहते हैं, किंतु अगर ऐसा होता है तो इराक़, सीरिया और तुर्की को अपनी भूमि का बड़ा हिस्सा गँवाना पड़ेगा, और ये मुल्क इसके लिए तैयार नहीं हैं।

यहूदियों के इज़रायल-राष्ट्र का गठन तो इतिहास की बात हो चुका, अब कुर्दों के लिए अपना एक राष्ट्र गठित करने के बारे में भी संयुक्त राष्ट्र को विचार करना चाहिए!

भारत का जैसा विभाजन हुआ था- वैसा इराक़, सीरिया, तुर्की का क्यों नहीं हो सकता? जैसे पाकिस्तान बना था, वैसे कुर्दिस्तान बनना चाहिए या नहीं?

तब यज़ीदियों की भी बात हो, जिनका बीते दशक में आईएसआईएस ने क़त्लेआम किया था। सिंजार और मोसुल के जेनोसोइड कुख्यात हैं। उनका भी अपना कोई देश नहीं है। तब एक यज़ीदिस्तान भी बने। क्यों नहीं?

आर्मेनियाइयों का फ़र्स्ट रिपब्लिक 1918 में गठित हुआ, जिसके बाद 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद स्वतंत्र राष्ट्र बना। लेकिन उससे पहले वो भी बेघर थे। उस्मानी साम्राज्य के तहत आर्मेनियाइयों का भी योजनापूर्वक नरसंहार किया गया था और पहले विश्व युद्ध के दौरान लाखों आर्मेनियाई को हलाक़ किया गया था। इस क़ौम के लिए भी कोई आँसू बहा ले, अगर फ़लस्तीनियों पर बहाए आँसुओं में से कुछ बच गए हों तो।

तब कोई यह भी पूछ सकता है कि कैसा हो अगर बलूचों का अपना एक स्वतंत्र राष्ट्र बने, पाकिस्तान को तोड़कर? क्यों नहीं? हिन्दुस्तान टूट सकता है तो पाकिस्तान क्यों नहीं टूट सकता?

ये ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीनों पर कब्ज़ा करने, ज़्यादा से ज़्यादा आबादी के दम पर अपनी आवाज़ को बुलंद करने की जिस रणनीति पर 14 सौ सालों से अमल किया जा रहा है, उसके पैटर्न को आप देख रहे हैं?

लेकिन, दुनिया किसी एक समुदाय की नहीं है, इस पर सबका मिला-जुला हक़ है। और हर वो सोच जो कहती है कि सबसे ज़्यादा ज़मीन हमीं घेरेंगे, सबसे ज़्यादा तादाद में हमीं होंगे और सबों पर हमारी ही सोच का सिक्का चलेगा, वो एक मानवद्रोही, विस्तारवादी सोच है, जिसका प्रतिकार ज़रूरी है। इति!

साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Horizontal Banner 3
Leave A Reply

Your email address will not be published.