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पशु-पक्षी कैसे मरते हैं और मरने के बाद उनका क्या होता है?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
पक्षियों की नींद रूई से भी हलकी होती है। पक्षियों की नींद में भाप भरी होती है। वो कभी चैन की नींद नहीं सोते। ज्यों खटका होने के पहले ही जाग उठते हैं। उनकी प्राणतुला सदैव दोलती रहती है। मैं पक्षियों की निश्चल नींद के लिए भी कभी-कभी ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ।

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पक्षियों का भरपूर नींद नहीं लेना मुझे करुणा से भरता है। मछली आँखें खोलकर इसलिए सोती है, क्योंकि उसकी पलकें नहीं होतीं। साँप की भी नहीं होतीं। पक्षियों की आँख पर एक झीनी-सी झिल्ली ज़रूर होती है। लेकिन वो कभी चेतना के वैसे पटाक्षेप में जाकर नहीं सो रहते कि सुध ही बिसरा दें। जैसे मनुष्य सोता है, घोड़े बेचकर।

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सृष्टि के चिरंतन-व्यापार में पक्षियों की मृत्यु भी एक पवित्र घटना है, जब वो आख़िरकार सोते हैं लम्बी तानकर, अपने प्राण का पखेरू सौंप देने के बाद। पर वो कभी सहसा लड़खड़ाकर धरातल पर नहीं गिरते, बशर्ते किसी बहेलिये या अहेरी ने उनको मार ना गिराया हो। वो धीरे-धीरे मरते हैं, पूरी रीति के साथ जीवन का त्याग करते हैं, एकान्त में जाकर कहीं खो रहते हैं। उनका हलका शरीर इस विश्व के अनवरत-समारोह का हिस्सा बन जाता है।

बर्न्ड हाइनरिख़ ने एक किताब लिखी है, जिसमें उसने बतलाया है कि पशु-पक्षी कैसे मरते हैं और मरने के बाद उनका क्या होता है। सहस्राब्दियाें से मनुष्य ने जिनका आखेट करने में ही पूरा ध्यान लगाया हो, वो अपनी निजता में कैसे देह त्यागते हैं, इसकी चिंता करने का सुभीता उसको कैसे मिले? जबकि जीवन में कितना आलोक भरा जा सकता है, केवल पक्षियों को एकटक निहारने से। ऋग्वेद में पक्षियों को अकारण ही ईश्वरस्वरूप नहीं कहा गया है। उनकी सुंदरता रहस्यमयी है। उनका जीवन अपार्थिव का उत्सव है। उनकी नींद और मृत्यु सृष्टि के गुम्फित कथानकों में से एक है।

कितने पक्षी हैं! क्रौंच और कपोत, हारिल और शकुन्त, चातक और भारद्वाज, शुक और बलाका। मुण्डकोपनिषद के ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया’। तैत्तिरीयोपनिषद के तित्तिर। और सबसे बढ़कर, प्राण का पखेरू। अकेला उड़ जाने वाला हंस। यह खगकुल बड़ा समृद्ध-संकुल है। मैंने सुना है, लम्बी यात्राएं करने वाले प्रवासी पक्षी आकाश में पंख तौलते हुए भी सो लेते हैं। आँख ही आँख में रात काट देते हैं। आधे मन से सोते और आधे हृदय से जागते हैं। अपने प्राणों पर संकट उन्हें सदैव ही अनुभव होता है, वो कभी निश्चिंत नहीं होते। बगुले की बात नहीं करता, जो समाधि का स्वांग रचता हो, पर कभी किसी पक्षी को अचल, स्थिर, निश्चिंत, निर्भय देखा?

वो जलपात्र से जल भी यों पीते हैं, ज्यों ऋण का नीर हो। इतने संकोच से अन्न के कण चुगते हैं, जैसे धरती की सौतेली संतान हों, चौके से चुराकर कुछ खाते हों। एक आहट होते ही उड़ जाते हैं। इतना संशय, इतना भय इनके मन में किसने भरा? सदियों-सदियों की यह इनकी पूँजी है, यह इन्होंने एक दिन में नहीं पाया।

इधर इसी रीति से निरंतर पक्षियों के बारे में सोचता रहा। उनकी निद्रा का अवलोकन करता रहा। और ग्लानि से भरता रहा। खग ही खग की भाषा जानता है, मैं तो मनुज हूँ, पर यदि उन तक अपना हृदय पहुँचा सकता तो दिलासा देता कि तुम निश्चिंत हो सो रहो, मैं कोई हानि नहीं पहुँचाऊँगा। मैं कैसे तुम्हारे भरोसे के योग्य बनूँ कि तुम अपनी नींद मुझे सौंप दो? मुझे इतना पुण्य कैसे मिले? मैं कैसे धरती पर ऐसे चलूँ कि कोई शब्द ना हो, तुमको मेरी साँसों के कोलाहल से कोई संशय न हो। तुम बेखटके सो रहो- जैसे मेरा बेटा सोता है- इस विश्वास के साथ कि घर में है, सुरक्षित है, अपने होने के किवाड़ बंद करके भरपूर सो पाना सम्भव है, प्रलय शायद एक और रात के लिए स्थगित है।

कितने ऋण सिर पर हैं। पक्षियों की उचटी नींदों का पाप भी इसी में सम्मिलित हो रहा। तब हारकर यही सोचता हूँ कि एक पक्षी का विश्वास जीतने में भी जो विफल रहा, उसने फिर दुनिया भी जीत ली तो क्या है?

साभार: सुशोभित -(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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